साहित्यकार निकट से | Sahityakar Nikat Se

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नरेश श्रीमती मद्दादेवी चर्म तथा प० सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराल' को आमंत्रित करने की वात तय की गयी ! * मैंने राय दी 'यदि पंतज्ा को आमत्रित किया जाय तो कैसा रहे कुसुमाकरजी ने कद्दा 'मुक्के कोई आपत्ति नहीं यदि पंतजी आना स्वीकार करें 1? मैं पतजी की कवितायें पढ़-पदू कर धनका भक्त सा दो गया था। पंतजी को कवि-सम्मेलन में बुलाने की उतनी इच्छा नहीं थी जितनी रहें. देने की । इतनी सुकूमार मावनायें इतनी सुकोमल भाषा में व्यक्त करने बाले पं० सुमित्रानन्दन पंत को एक बार देखने तथा उनसे चात करने के लिये किसका जी न चाहेगा * मे ऐसा सुयोग देसकर इनसे मिलते की कामना करने लगा। '. प्रश्न हुआ 'पंतजी को कौन ला सकता है 1* यद्यपि इसके पूर्व न तो कभी मैं प्रयाग गया ही था 'और न इतने सुप्रसिद्ध साहित्यकार से कभी मिला दी था फिर भी घोल सठा 'सै चेप्टा कर सकता हूँ 1” अत में सु ही प्रयाग मेलने का निश्यय फिया गया । दूसरे दिन अपने एक सहपाठी तथा स्त्० राय देवीप्रसाद 'यूर्णर के चशघर राय गोपीचन्द को साथ लेकर मैं प० सुसिव्ानन्दन पंत में मिलने फे लिये प्रयाग चल दिया । राय गोपीचन्द यड़ें देंसमुख और मिलनसार थे । रेल में मैंने दनसे कहा 'क्योंजी, प तजी से कैसे मिलना होगा *” उनसे मिज्ञने में क्यों भवड़ा रहे दो है इनकी शकल-सूरत सादिस्पकार निकट से-- व




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