गणी श्री उदयचन्द्र जी | Gani Shri Uday Chandra Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उदय श्राकाश के विशाल रह मच पर धनेकानेक्र नन्तत्र समूद्द आाति हैं श्र चले ज्ञात हैं । परन्त उनसे विश्व की प्रकृति में कोई परिवतन नहीं होता । धदुर्तों के सम्बन्ध में तो पता मी नहीं चलता कि वे झाये भी या नहीं ? विश्व ने नत उनका उदय छोना जांना और न अस्त द्ोना ही । परन्तु इन सब से. घिक्कच्ण, लख सूर्य उदय होता है, सब कया होता है ? पूवे दिशा की श्नोर जब छितिज में से सूय॑ देव श्रपना भासवर मुख- मयइक्त बाइर निकाल्तता है तो विश्व का इस्य कुछ छर का श्रौर दी दो जाता है । रात भर के सघन झन्धकार का विशाक् साम्राज्य छिनन-भिन्‍न दो जाता है, सारा विश्व सुनदले प्रकाश से जगमगा उठता है । क्या सांव, कया नगर, पया उपवबन, कया जद्नल, सब शोर एक खासी शषच्छी चहस्त-पद्क्ष हो जाती है। कया मनुष्य और क्या पशु पक्षी सब सोते से जाग उरते हें,एच 'झाक्षस्य की जता के यन्घन को तोदने के लिए झगदाई ले कर झपने झपने कतंव्य पथ पर जा खड़े होते हैं । यद्द है सूर्योदय । पद्दादों की ऊंची 'वोटियों पर से, जिन लोगों को सूर्योदय सम्बन्धी सुरम्य इस्य देखने का सं।भाग्य मिलना है, वे जानते हें कि सूर्योदय, विश्व प्रकृति का कितना मद्दानू, फितना चिल्तक्षण पमस्फार है ) हाँ तो सानव ससार सें भी न सालूम किसने इजार प्राणी प्रस्ति- दिन जन्म लेते हें और मरते हें ? कौन किस को जानता है १ यो ही श्राये, कुछ दिन रहे, श्र भोगवासना की '्रघेरी गलियों में ठोफरें खा कर एक दिन चले गए । जिनका हँसना-रोना प्रथम सो ्पने तक सीमिस रहा, और यदि परे सी यदा सो आस पास्त परिघार के रिने पुने छोगें लक । थे छिंश्व के सुख-दुस् में सदाकार होकर घथिश्वात्सा का सइनीय विराट रूप प्रीप्त ल यर सकते । भौतिक जगत फे प्रतिनिधि चमक यर भी चमक नहीं




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