नित्य कर्म | Nitya Kram

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Nitya Kram by रावजीभाई छ देसाई- Ravjibhai Chh. Desai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ सेवाने प्रतिकृव्ठ जे, ते बंधन नथी त्याग; देदंद्रिय माने नहि, करे वाह पर राग. तुज वियोग स्फुरतो नथी, वचन नयन यम नांहि; नहि उदास अनभक्तथी, तेम यद्दादिक मांदहिं- अहभावथी रहित नहि, स्वघम संचय चांहि; नथी निवृत्ति नि्मेठपणे, अन्य धमेनी का. जेम अनेत प्रकारथी, साधन रहित इंय; नहीं श्रेक सदूगुण पण, सुख बताओ शुय ? केवछ करुणा-मूर्ति छो, दीनर्बंधु दीननाथ; पापी परम अनाथ छुं; श्रह्ो प्रभुजी हाथ. अनंत का्थी आधथड्यो; बिना भान भगवान; सेव्या नहिं गुरु संतने, मृक्युं नहिं अभिमान, संतचरण आश्रय बिना, साधन क्यों अनेक; पार न तेथी पामियो, उग्यो न अंदा घिवेक. सह साधन वेंघन थयां, रहो न कोई उपाय; सत्स।घन समज्यों नहि, त्यां वंघन शुं जाय ? प्रभु प्रमु लय ठागी नहि, पड्यो न सदूयुरु पाय; दीठा नहि निज दोष तो, तरीखे कोण उपाय? अघमाधम अधिको पतित, सकव्ठ जगतमां इंय; मे निश्चय आव्या बिना, साधन करदे शुय ? पडी पडी छुज पद्पंकजे, फरि फरि मायुं भेज; श्० श्र श्र श्द्े श्छे श्ण श्द १७ श्ट श्र सदूगुरु संत स्वरूप तुज, भे द्रढता करी देज. २० श्रीमदू राजचद्र




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