निधान चिकित्सा खंड - १ | Nidan-chikitsa Volume-1
श्रेणी : आयुर्वेद / Ayurveda
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.2 MB
कुल पष्ठ :
272
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about शिवचरण ध्यानी - Shivcharan Dhyani
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२.
व्याधि किसे कहते हैं
ज्वर, विकार, रोग, व्याधि श्रौर श्रातंक-ये सब पर्यायवाची
शब्द हैं, जिनसे शारीरिक या मानसिक वेदना श्रशिप्रेत होती है ।
वेदना शरीर या मन के प्राकृत कर्मों में क्षय या वृद्धि रूपक वैपम्य-
लक्षणों के रूप में व्यक्त की जाती है । शरीर निर्मायक तत्वों-दोपा-
दिकों-में जब वैपम्य झ्रा जाता है तो शरीर या मन को कष्ट होता
है । इस कष्ट की श्रनुभूति को जिन शब्दों में व्यक्त किया जाता है,
उन्हें लभण कहते है । चिकित्सक लक्षण समुच्चय से व्याघि का
निश्चय करता है । यह स्मरणीय एवं श्रविस्मरणीय है कि लक्षण
या लक्षण समुच्चय 'व्याघि” नहीं हैं । व्याधि तो शारीरिक
या मानसिक, उस विकृति का नाम है, जिससे लक्षणों की उत्पत्ति
होती है । विकृति द्रव्य में होती है, लक्षणों में नहीं, यथा शिर:
शुल के रोगी में, विक्ृति या विक्ृति-प्रभाव शिर में होता है, शूल में
नहीं । इस श्राघार पर “लक्षण समुच्चयों व्याधघिः' नहीं कहा जा
सकता है तो क्या दोप-घातु श्रौर मलों के वेषम्य को व्याधि कहें ?
नहीं । ऐस्न मानने पर सम्प्राप्ति की छः अ्रवस्थाये क्यों मानी जायें,
कारण कि दोप दृष्यों में वेपम्य तो चयावस्था में ही श्रा जाता
है । दोपादिकों के वैपम्य से भी, म्रवश्य कुछ लक्षणों की उत्पत्ति
होती है लेकिन उनसे किसी निश्चित रोग का ज्ञान नह्दीं होता है ।
'दोष दृष्य सम्मुच्छेंना जनितों व्याधि:” । यही मानना उचित है ।
दोष और दृष्य की सम्मूच्छेंना (समिश्रण ) से व्याधि की उत्पति
होती है । 'दोप धातु मल मूलं हि शरीरम् से शरीर निर्मायक
User Reviews
No Reviews | Add Yours...