निधान चिकित्सा खंड - १ | Nidan-chikitsa Volume-1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२. व्याधि किसे कहते हैं ज्वर, विकार, रोग, व्याधि श्रौर श्रातंक-ये सब पर्यायवाची शब्द हैं, जिनसे शारीरिक या मानसिक वेदना श्रशिप्रेत होती है । वेदना शरीर या मन के प्राकृत कर्मों में क्षय या वृद्धि रूपक वैपम्य- लक्षणों के रूप में व्यक्त की जाती है । शरीर निर्मायक तत्वों-दोपा- दिकों-में जब वैपम्य झ्रा जाता है तो शरीर या मन को कष्ट होता है । इस कष्ट की श्रनुभूति को जिन शब्दों में व्यक्त किया जाता है, उन्हें लभण कहते है । चिकित्सक लक्षण समुच्चय से व्याघि का निश्चय करता है । यह स्मरणीय एवं श्रविस्मरणीय है कि लक्षण या लक्षण समुच्चय 'व्याघि” नहीं हैं । व्याधि तो शारीरिक या मानसिक, उस विकृति का नाम है, जिससे लक्षणों की उत्पत्ति होती है । विकृति द्रव्य में होती है, लक्षणों में नहीं, यथा शिर: शुल के रोगी में, विक्ृति या विक्ृति-प्रभाव शिर में होता है, शूल में नहीं । इस श्राघार पर “लक्षण समुच्चयों व्याधघिः' नहीं कहा जा सकता है तो क्या दोप-घातु श्रौर मलों के वेषम्य को व्याधि कहें ? नहीं । ऐस्न मानने पर सम्प्राप्ति की छः अ्रवस्थाये क्यों मानी जायें, कारण कि दोप दृष्यों में वेपम्य तो चयावस्था में ही श्रा जाता है । दोपादिकों के वैपम्य से भी, म्रवश्य कुछ लक्षणों की उत्पत्ति होती है लेकिन उनसे किसी निश्चित रोग का ज्ञान नह्दीं होता है । 'दोष दृष्य सम्मुच्छेंना जनितों व्याधि:” । यही मानना उचित है । दोष और दृष्य की सम्मूच्छेंना (समिश्रण ) से व्याधि की उत्पति होती है । 'दोप धातु मल मूलं हि शरीरम्‌ से शरीर निर्मायक




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