मौनव्रत कथा | Maunvrat Katha

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Maunvrat Katha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मौनघ्रत कथा पु कानेके लिये आत्म परिणामोंमें ऐसी विछचश दृढ़ता होनी चाहियें कि कितनी ही भयंकर विपत्ति, केसा ही भय, विश्वकों मोहित करने- वाला केसा ही लोभ ओर तीन जगतको ललल- चानेवाली केंसी ही मधुर झाशा भले ही कोई प्रदर्शित करे तो भी अपने परिगामोंमें देव,शास्त् आर शुरुकी श्रद्धासें यत्‌ किंचित्‌ मात्र भी शंकर न होनी चाहिये। सोचकी प्रात्ि इन सिवाय अन्यसे कहपास्त कालमें थी नहीं होगी ऐसी दिव्य हृद्तासे श्रद्धान करना सम्पग्दर्शन है। सम्पग्दशुन* होनेपर वह जीव भर्मंका पात्र समता है। ऐसे जीवोंका ज्ञान सम्पर्ज्ान कहलाता है, जिन जोत्रों के व्यवहार सम्यग्दर्शन दाह मूल गुण पालन करे बिना श्रावकोंके रक्त-जानरततु गौर इद्यकी शुद्धि नहीं दोती है, क्योंकि म्रद्यादिकों के सेवनसे रमें करूप्ता, कान टंतुमोंमें चिकारठा, भीर मनें जाड्यता सदच चनो रहती है। मद्य त्याग १ मांसत्याग २ मधुत्याग ३ चढ़फठ सांग ४ पीपल फछ त्याग ५ उदंघर फछ त्याग ६ पाका'फल- त्याग ७ कटूमरफल छाग ८ ये भी मूखगुण हैं ।




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