महाबन्धो [भाग 1] | Mahabandho [Vol. 1]

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Mahabandho [Vol. 1] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रास्ताविक किव्चित्‌ जब मैंने षट्संडागमका सम्पादन प्रारम्भ किया था तब मेरे मार्गमें अनेक विन्न बाधाएँ उपस्थित थीं । तो भी जब उक्त अंधका प्रथम भाग सन्‌ १९३९, में प्रकाशित हुआ और छोगोंने उसका आनन्दसे स्वागत किया, तब मुझे यह आशा हो गईं कि कठिनाइयोंके होते हुए भी यथा- समय तीनों सिद्धांत पंथ प्रकाशमें लाये जा सकेंगे । फिर भी मुझे यह भरोसा नहीं था कि मेरी आशा इतने शीघ्र सफल हो सकेगी और साहित्यिक प्रवृत्तियोंमें संसार-युद्धके कारण अधिकाधिक बाधाओंके उपस्थित होते हुए भी, जयधवलाका प्रथम भाग सन्‌ १९४४ में तथा. महाबंधका प्रथम भाग सन्‌ १९४७ में ही प्रकाशित हो सकेगा । जैनसमाज और उसके विद्वानोंके इन सफल प्रयलॉंसे भविष्य आशापूर्ण प्रतीत होता है । मैं बट्खंडागमके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें बतला चुका हैँ कि घधवल और जयधवर सिद्धांतोंकी प्रतिलिपियाँ सन्‌ १९४४ में ही मूडबिद्रीके शास्रभंडारसे बाहर आ गई थीं और उसके पश्चात्‌ कुछ वर्षोमें उनकी प्रतियाँ उत्तर भारतमें उपलभ्य हो गई । किंतु महाधवल नामसे प्रसिद्ध सिद्धांत अ्रंथ फिर भी मूडबिद्री सिद्धांत मंदिरमें ही सुरक्षित था | जब मैंने सन्‌ १९३८-३९, में इन सिद्धांत अंथोंके अन्तगंत विषयोंको जाननेका प्रयल प्रारंभ किया तब मुझे यह जानकर बड़ा विस्मय हुआ कि जो कुछ थोड़ा बहुत बृत्तान्त महाधवलकी प्रतिके विषयमें प्राप्त हो सका था उसके आधारपर उस प्रतिमें केवल वीरसेनाचार्यक्त सत्कर्म चूठिकाकी एक पश्चिका मात्र है और महाबंधका वहाँ कुछ पता नहीं चछता तब मैंने इस विषयपर अपनी आशंका और चिंताको प्रकट करते हुए कुछ लेख प्रकाशित किये और अधिकारियोंसे इस विषयकी प्रेरणा भी की कि वे मूडबिद्रीकी ताड़पत्रीय प्रतिका सावधानीसे समीक्षण कराकर महाबंधका पता लगावें। मुझे यह कहते हप होता है कि मेरी वह प्राथना शीघ्र सफल हुई । मूडबिद्रीके भट्टारक जी महाराजने, पं० कोकनाथ शाख्री व पं० नागराज शाख्रीसे ताडपत्रीय प्रतिकी जाँच कराई और मुझे सूचित किया कि उक्त पैजिका ताडपत्र ९७ पर समाप्त हो गई है, एवं आगेके पत्रॉपर महाबंधकी रचना है। देखिये जैनसिद्धांत भास्कर ( भाग ७, जून १९४०, प्र० ८६-९८ ) में प्रकाशित मेरा लेख श्री महाधवलमं क्या ₹. एवं घट्खंडागम भाग ३, १९४१ की भूमिका प्र० ६-१४ में समाविष्ट 'महाबंधकी खोज । इस अन्वेषणसे उत्पन्न हुई रुचि बढ़ती गई और शीघ्र ही, विशेषत्: पं० सुमेरचंद्र जी दिवाकरके सत्यलसे, दिसम्बर १९४२ तक महाबंधकी प्रतिलिपि भी तैयार हो गई व उन्होंने प्रस्तुत प्रथम भागका सम्पादन व अनुवाद कर डाला । उनके इस स्तुत्य कार्यके लिये मैं उन्हें बहुत धन्यवाद देता हूँ । पंडितजीने अंपनी प्रस्तावनामें जो. सामग्री उपस्थित की है उसके साथ पट्खंडागमके प्रकाशित ७ भागोंमें मेरे द्वारा लिखी गई भूमिकाओंको पढ़ लेनेकी मैं पाठकोंसे प्रेरणा करता हूँ । इससे इन सिद्धांतोंकि इतिहास व विषय आदिका बहुत कुछ परिचय प्राप्त हो




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