मानस पीयूष | Manaspiyush

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Manaspiyush  by अन्जनीनंदन शरण - Anjaninandan Sharan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लाल सववेदान्तदशनका परिचय (१५ ) मानस-पीयुष 0, पक निददिकर....० ८ फेल: दस डककवियक. रूपसे ही विद्यमान रहता है--( वेदान्त-पारिजात-सौरभ ४ । '४ । ७ ) । मुक्तावस्थामें भी उपासनाका प्रतिपादन “शान्त उपासीत” 'मुमुझुब्हझोपासीत” इत्यादि श्रुतियाँ करती हैं, अतः सुक्तावस्थामें भी जीवका कतूत्व॒ अश्ुण्ण रहता है-- ( ब्रह्मयून २। रे । ३२ पर वे० पा० सौ० ) | आचार्यने 'दशदलोकी” में अचित्‌ तत्वकों तीन संशाएँ: दी हैँ--प्राकृत, अप्राकृत, काल । पाश्चमीतिक जगत्‌को प्राकृत कहते हैं, प्रकृतिके सम्बन्घसे रहित भगवदू धामकों अप्राकृत कहते हैं तथा जगत्‌के नियामक कालको भी अचेतन ही स्वीकार किया है । यद्यपि काल जगत्‌का नियामक है किंतु भगवानके लिये नियम्य ही है । नित्य-अनित्यमेद्से काल दो प्रकारके होते हैं । स्वरूपसे नित्य तथा कारयंसे अनित्य - अप्राकृतं प्राकुतरूपकब्च कालस्वरूप॑ तदचेतनं मतम्‌--( दशश्छोकी ३ ) । ब्रह्मयूनपर निम्बाकाचार्यका भाष्य तो अत्यन्त स्वल्प है किंठु श्रीनिवासाचार्यका भाष्य 'वेदान्तकोस्तुभ” पारिजात सौरभके गूद रइस्योंका विस्तारक है । भीनिम्बाकंका मत मेदामेद होनेपर भी श्रीरामानुजाचार्यके विशिष्टाद्वतसे बहुत अंदोंमें प्रायः अभिन्न है | श्रीवरछभावार्यका शुद्धाद्ेतवाद स्वामी भीवल्लभाचार्यने अपने अणुभाष्यमें प्रचल प्रमा्णोंसि शुद्धादैतकी स्थापना की है। महाराज विजयनगराध्यक्ष भीकृष्णरायके द्रबारमें अद्वेतियोंको परास्तकर उन्होंने अपने अलौकिक पाण्डित्यका समीचीन परिचय दिया है. श्रीवलूढभा- चार्य भीचेतन्यके समकालीन थे | इनके मतमें ब्रह्म निर्गण होता हुआ भी सगुण है, निराकार होता हुआ भी साकार गा भगवान्‌ सल्िदानन्द्‌ सर्वव्यापक-सर्वशक्तिमान्‌ हैं | अद्रैत मतके अनुसार निर्विशेष चिन्मात्र बह्म ही मायाके सम्पकंसे सविशेष प्रतीत होता है, ईश्वर जीव दोनों अविद्यायुक्त हैं, इत्यादि । इस प्रकार अद्वेववादियों का यह कथन वल्लभाचार्य नहीं स्वीकार करते हैं । माध्व मतानुसार इनके मतमें भी परव्रह्म अचिन्त्य महिमामण्डित होनेके कारण परस्परविरोधी गुणोंसे युक्त है। 'अणोरणीयान्‌ महतो महीयान' श्रुति भगवान्‌कों अणुसे भी लघु एवं महत्पदार्थसे भी महत्तर बतलाती है | 'श्रीहेबा यवाद्‌ वा 'इयामकादू वा इयामाकतण्डुलादू वा” धान, यव, शामा आदिसे लघु कहकर “प्रथिव्या: ज्यायान्‌ अन्तरिक्षाउज्यायान्‌ आकाशाज्ज्यायान्‌ एभ्यः सर्वेभ्यों छोकेभ्यो ज्यायान अर्थात्‌ समस्त लोकॉसि चढ़ा श्रुति बतलाती है। इनके मतमें जीव भगवानका अंश अलक्षित रदता है। मुक्त दोनेपर आनन्द अंश दौनेपर भी अभिन्न है। सत्‌ःचित्‌-भानन्दरूप ब्रह्मके सत्‌ अंगसे प्रकृति-जड़तत्वकी अभिव्यक्ति तथा चिदू अंशसे जीव तत््वकी अभिव्यक्ति है। जीवमें ब्रह्मसे निगमन काठमें आनन्द अंश अलक्षित रहता है । मुक्त होनेपर आनन्द अंश प्रकट हो जाता है अमेद है । आचार्यके मतमें जगत्‌ भी .भगवानके सत्‌ अंशसे निकलनेके कारण विकारी नहीं है किंदु ब्रह्म जीवके सददद ही नित्य अविकृत तत्त्व है | वैष्णव दर्शनोंमें ्रीवल्ठभा चार्यकी यह कल्पना स्वतन्त्र है । विदिष्टाद्वेतके अनुसार ही जीवकों ये अणु मानते हैं किंतु जगत्‌कों देय नहीं मानते । क्षर, अक्षर पुरुषोत्तमकों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ तो मानते हैं किंतु क्षरको भी भगवान्‌के सद्‌ अंश होनेके कारण शुद्ध नित्य मानते हैं । इसीछिये इनका मंत शुद्ध अद्दैत है अर्थात्‌ जगत्‌, जीव एवं ब्रह्म तीनों शुद्धतत्वोंका अमेद ही शुद्धाद्त है । आचार्यने श्रीमदुभागवतकी . सुबोधिनी टीकामें अपने सिद्धान्तके समस्त पदार्थीका विद्वद॒ विवेचन किया है । भीवल्लममतानुयायी वैष्णवगणमें 'सुन्रोधिनी की मददती प्रतिष्ठा है । अशुभाष्यसे भी सुबोधिनीका अधिक गोरव है | आचार्यके मतमें मर्यादा भक्तिकी अपेक्षा पुष्टि भक्तिका अवलम्बन ही श्रेष्ठ माना गया है | मर्यादा भक्तिमें शानकी अपेक्षा होती है किंतु पुष्टि भक्तिमें शानकी पं बर्ण, जाति आदिकी अपेश्ता नहीं होती है । अनुग्रहको पुष्टि कहते हैं--'पोषण तदनुग्रहः* सुबोधिनी । २ | १० | इनके मतमें ज्ञानसे अक्षर ब्रह्म ( जीवात्मा ) की प्राप्ति दोती है किंतु भगवानकी प्राप्ति ' हो अनन्य भक्तिसे ही संग्भव है । अत्यन्त सरल पुष्टिमा्गके आश्रयणद्वारा आनन्द्सिन्धु भगवानका अधरामृतका पान करना ही जीवका चरम फल है। मगवानका अवतार केवल परमानन्द देनेके लिये ही होता है, भू-भारका हरण तो मिना अवतारके भी सम्भव था सुबोधिनी । ५१० । २९ । १४ । जीवमें आनन्दका तिरोभाव है किंतु भगवानमें पकरस अखण्ड आनन्द है, अतः 'भगवादमें




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