हिंदी महाकाव्य का स्वरुप विकास | Hindi Mahakavya Ka Sawarup Vikash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५ ) शार्मिक क्रियाओं के साथ-साथ काव्य-कला की उत्पत्ति नहीं मानते और मनो- रंजन की प्रदत्ति को ही प्रधान समझते हैं, उनका भी कहना है कि काव्य, नंग्य, सगीत आदि की उत्पत्ति प्रारम्मिक मानव-समाज में सामूहिक उत्सवों से ही हुई हे | आंख्यानक चूदया-गीत :-- प्रारम्मिक मानव-समाज में देवताओं और पित्तरों की पूर्जों के लिये आयो- लित दृत्य-गीत में सर्थयुक्त भाषा का व्यवह्दोर होने और उन व्यक्तियों से सम्बन्धित आख्यानों के जुद जाने पर सामूहिक न्त्य-गीत ने आख्यानक छृत्य गीत का का रुप घारण कर लिया । आख्यानक न्त्य-गीत के सम्बन्ध में दो खोतों से पता म्वलता है-- श--प्रा्ीनतम उपलब्ध साइित्य से र--सम्य जातियों के अदिक्षित ग्रामीण समाज के और आादिंम जातियों के नत्य-गीत से । स्पष्ट ही इसमें रूपक और प्रबन्धकाव्य दोनों का बीज दिखलाई पढ़ता दे। भारत में इसका प्रारम्मिक स्वरूप क्या था, यह निदिचित रूप से नहीं कद्दा जा सकता, किन्तु अनेक विद्वानों का मत है कि कग्वेद के संवाद सूक्तों में इनका रूप दिखछाई पडता है । आख्यानक चत्य-गीत का स्पष्ट-प्रमाण पतजछ्छि के महदाभाष्य ( ३-१-२६ ) मे मिलता है जिसमें कहा गया है कि झौमिक लोग कंसवध और वाल्विघ के आख्यानों का प्रदर्शन करते थे । इसमें कोई सन्देह नहीं कि परवर्ती काल मे पौराणिक और निजन्घरी आख्यानों का स्वरूप धार्मिक हो जाने से धार्मिक उत्सवों के अवसरों पर मन्दिरों मे गीति-नास्व का अथवा आख्यानक नृत्य-गीत का आयोनन दोता था जिसका अवशिए रूप आज भी देवदासियों के द्त्य तथा कथाकली, कथक सादि भाव-रूपकों मे दिखाई पडता है अथवा लोकोत्सवों और लोक-नृत्यों आदि में अत्र भी जिसका मूठ रूप अवदिष्ट हे । बंगाछ में छोग देवताओं के मुखौंटे पहनकर चृत्य करते हैं । काली, 'वामुण्डा, वासुकी, राम, लदमण, दनुमान, दिव-पार्वती, मेरसिंद, हिरण्यकशिपु, कार्तिक आदि की कथाओं का वहाँ नृत्य द्वारा प्रदर्शन किया जाता है और दुर्गापूजा, धमपूजा, (गाजन), शिवपूजा (गभीरा) आदिं के सप्य आावइयक धार्मिक क्रिया के रूप में उनका आयोजन दाता दे । 1-. “फपिज0, 800 छत तेधाा08 छिपा हा प्रप५8ट्रास्‍छी कुछ 01 ५636 दहन एॉंपर65 800 फी। 680 ६76. एछ्प0एर160. 0 घा6 ए०छपा800 फूणाछाए 00. पाधशोड 0 छु०ड, छु00688565 80 तैं. काध्नाए 10१67 छाताएा 815... ....छिश8ाएं05




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