षोडश भावना प्रवचन | Shodash Bhavana Pravachan

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Shodash Bhavana Pravachan  by प्रेमचंद्र -Premchandra

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दर्शनविशुद्धि, दिनाई प-६-रै४ ) (११) झाश्रव । निरखते जाओ, उस जीव और उजीवको देखकर यह पंच तत््वकी व्यवस्था बनायी जारदी है। स्वभावमें विभावका 'आना 'छाश्रव है । स्वभावके मायने है शाश्वत चित्स्वभाव और विभावके मायने है रागदेष । सावात्मक वन्धतत्त्त--स्वभावमे विभावका बेँघना बंध है, उसका संस्कार बना रहे उसकी पकड़ बनी रहे बदद बंध है । आना 'और पकड़ करना इन दोनों में झन्तर है। आाश्रव दो केवल आनेका नाम दै ओर बंध पकड़नेका, रोकनेका नाम है । जैसे किसीको क्रोध छाता है और चलता जाता है। यद्द मोटी बात कई रहे हैं। क्रोध यों नहीं दोता कि छाया और चला गया । क्रोघ भी पकड़मे ता है तब शुस्साका रूप बनता है। मोटे रूपसे समफलो-एक पुरुषके क्रोध ाता है शऔर चला जाता है, 'र किसी सनुष्यके क्रोध पकड़मे रहता है । क्रोघको पकड़कर बैठता है। 'आाज दाव नदी लगा तो कल देखेंगे, संस्कार बना है, यो दी समक जाबो कि विमाव आये तब तो 'आाश्रव है और जीवसें लिन होगयी, नीव जम गयी, बासना हुई यदद बंघ है। ये दोनों तत्त्व देय हैं । भावास्मक संवर निजरा व सोच्षतत्त--देयमूत 'आाश्रव और बन्धकी. श्रतिक्रिया में दो तत्त्व हैं सम्बर और निगेरा । जीवमें विभावोंका आाना रुक जाना इसका नाम है सम्बर । और जीवस्भावमें से विभावोंका कड़ना इसका नाम है निर्णरा । इसद्दी उपायसे जब जीवसे ये रागादिक विकार सब दूर दो जाते है, शुद्ध ज्ञानमात्र यदद आात्मततव रददता है तो बह हुआ इसका मोक्ष, ऐसी दृष्टि रखनेवाला दशेनविशुद्ध सम्यग्दष्टि जब विश्वके जीवॉपर नजर करता है. और उनके दुःख देखता है, व इनके दुःख, कष्ट दूर हों ऐसी जब उनकी परम कहणा जगती दै तब तीर्थंकर प्रकृतिका बन्व होता है। पहिलेके सप्- तत्त्वके श्रद्धानके विचरणसे यद्द बिबरण कुछ कठिन लग रहा दोगा। लेकिन नयोंके स्वरूप जाननेपर यदद परिज्ञान सुगम दोता है पद्चिले व्यवद्दारनयकी छापेक्षा बात कद्दी थी । झब यदद अशुद्ध निश्वयनयकी अपेक्षा बात है । विशुन्ध निश्चयनयतते सप्तततवॉंमें जीव और अजीवतरव--व्अब जरा निश्वयनयकी अपेक्षा भी सुनिये। सम्भव है यद्द अत्यन्त 'अधिक कठिन हयुड लेकिन अपना उपयोग सावधान रखकर सुननेसे कुछ थद्द दुर्गम न दोगा । 'झभी तो रागादिक बिकारोंके छाने, बैधने, रुकने व ड़नेकी अपेक्षा दी गयी थी, झाब यह उच्च ांतरिकतासे निरखा जाने वाला छाध्यास्मिक विवरण है । यद आत्मा ज्ञायक है, सर्च पदार्थोको जाननेवाला है । स्व पदार्थ जिसके जाननेमें झाते हैं चह्द तो हुआ ज्ञायक और सच पदायथे हुए ज्ञेय । इस ज्ञायकमे ये वाद पदार्थ जय नहीं चाते हैं, ये ज्षेय पदार्थ शेयोंकी जगद रहते हैं और यह ज्ञायक




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