श्री भागवत दर्शन भागवती कथा भाग - 47 | Shri Bhagwat Darshan Bhagavati Katha Bhag - 47

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रीकृष्ण बलराम से जरासन्ध का सब्र बार युद्ध. १४: समय वे प्राखों का पण लगाकर समर भूमि में उतर पढ़ते हैं श्नीर निर्भय होकर युद्ध करते हैं । वे सोचते हैं हमारे दोनो हाथी में लडइ हैं। यदि हमने शत्रु को परास्त कर दिया तो विजय का आनन्द लडेंग । यदि लड़त लड़ते समर में श्र, के सम्मुख शखों से मारे गये, तो स्त्रगं का द्वार हमारे लिए खुला ही है। इसी विश्वास पर वे युद्ध करत है । यहीं विश्वास उन्हें समर से. पम पीछे नहीं हटाने दता । सूतजी कदते हैं--“सुनियों ! जरासन्घ की '्ीर यांदवों की सेना में घमासान युद्ध होने लगा । दोनों शरीर के वीर विजया- कांची थे, दोनों ही झार के सेनिक श्रह्न शखों से सुसल्ित थे दोनों ही '्ोर रथ, हय, गज शोर पदाति इस प्रकार चतुरज्लिनी सेना थी । भगवान्‌ के रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न था श्यीर बलदेवीजी का प्वजचिन्ह ताल यृक्त का था । ये ध्वजायें दूर से ही दीखती थीं | दोनों घोर ये चिन्ह 'ट्ित थे, छत: सामने के नोग भी देख सकते थे श्रोर पीछे के लोग भी । दोनों भाई 'पने दिव्य रथों पर घढ़कर जरासन्घ की सेना में उसी प्रकार घुस गय,. जिसे दो तैराक समुद्र में घुसते हों । जरा जैसे ग्भ को ढक लेती हे) जैसे मेघ मंडल को रजमिश्रित वायु ढक लेती है, जेसे राहु सूर्य चन्द्र को ढक लेता है, उसी प्रकार रामकष्ण के रथों को जरासन्थ की 'चतुर्ड्लिनी सेना ने ढक लिया । जो खियाँ भगवान्‌ के मुख को ही देखकर जीती थीं. ऐसी मथुरा की चारियों ने जब देखा कि राम कृप्ण रथ पर घढ़कर समर के लिये गये हैं, तब वे व्याकुल' होकर श्रटा अटारियों पर चढ़कर उनके रथों को निद्दारने लगीं । चने सबकी दृष्टि गरुड़ और तालकी ध्वजाओं पर केन्द्रित हो गई | वे शपलक भाव से उन ध्यजञाओं को ही देख रही थीं | मगघराज की प्रचण्ड सेना के प्रवाद' से तथा महारथधियों और 'छाधिरथियों के रथ, सारथी, 'झश्व, ध्वज, पताका श्लोर रथों के:




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