शशि प्रभा | Shashi Prabha

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Shashi Prabha  by वैजनाथसिंह - Vejnathsingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कक न चुड जड़ा नाना ' ध्यानसिह ने. बहुतेरा चाहा कि इस ज़मीन को कारी- गरी को जाने पर वह न जान पाएं। श्रती पर कोई चिन्ह न मिला । घरती साधारण शर ठोस सी दिखाई पड़ी ! छाब उस द्‌ द्रवाजे.को खोलना चाहा । ढूँढ़ने पर चौोखट का बटन दिखाई पडा । ध्योनसिह ने उस बटन को सामने खींचा बटन के खींचते ही बह दरवाजा चटख कर खुल गया और सामने एक मेहराबदार बड़ा महल दीख पड़ा | दरवाजे के खुलते ही लोहे के पीपे वाली खिड़की-जिसमें होकर पाँचों गिरे थे-झापसे झाप बन्द हो गई । यद॒ तमाशा देख ध्यानसिंह ने प्रतनाथ से कहा-ऊपर की राह तो बन्द- हो गई ऐसा न हो कि हमारे बाहर पेर घरते हो यह दरवाजा 'भी बन्द हो जाय । अच्छा दो कि इस दरवाजे को रस्सी से. जकड़ कर बाँघ दे । जिससे यह खुला रहे, मुंदने न पाए । प्रेतनाथ ने उसका एक पठला रस्सी से बाँध कर बाहर की परेहराब में खींच कर बाँघ दिया । पॉँचों जन मेहराब वाले मकान में झाण । देखा तो सारा मकान मेहराबों से भरा है 1 सिवा मेहराबों के ओर कुछ उसे हैं ही नहीं ध्यानसिंह ने कहा-वाह यह तो अच्छा मलसुलइयाँ का खेख बना है । यह किस इच्छा से बना है खो रास ही जाने पर अनजान के लिए तो इसमें भटक २ कर पाश गंघाने का ब्च्छा सांघन तैयार किया गया है पाँचों जन पाँच सेहराबों में पेठकर चाहे कि इसका मर्म दूढ़॒ पर पाॉँचो झसफल ( नाकामयाब ) रहे । घूम फिर कर पॉँचों. बाहर निकल आए ! बड़ी देर तक वे घूमा फेरी करते रहे लेकिन भेद न पाए । सोदामिनी ने कहा -इसी प्रकार: कां. एक सीढ़ीदार घर मुझे भी मिला था । इसमें मेहराबे हैं उसमें सीढ़ियाँ थीं बस यही दोनों में फर्क है। उसमें ही




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