मेरी जीवनगाथा | Meri Jeevangatha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अपनी बात १६३ और प्रारभ से लेकर ईसरीसे सागरकी आर प्रस्थान करने तकका घटनाचक्र क्रमशः: लिपित्द्ध कर छिया । जबछपुरसे हमारे एक परिचित बन्धुने मुझे पत्र लिखा कि पूज्य वर्णीनीने समयसारकी टीका तथा अपना लीवन चरित लिखा है उसे आप प्रकाशित करनेके लिए, प्राप्त कश्नेका प्रयत्न करें । मित्रकी बातपर मुझे विश्वास नहीं हुआ सौर मैंने उन्हें लिख दिया कि वर्णाजीने समयसारकी टीका लिखी है यह तो ठीक है पर नोवनचरित भी लिखा है इस बातपर मुके विश्वास नहीं दोता | भारतवर्षोय टि० लैन विद्वसरिषद्की ओरसे सागरमें सन्‌ १६४७ के मं जूनमें शिक्षणशिविर्का श्रायोजन हुआ था । उस समय पूज्य वणी नी मलहरामें थे । मैं शिविरके समय सागर पधघारनेकी प्रार्थना करनेके लिए मलइरा गया | त्र० चिठानन्दनीने ( अब आप जुल्छक हैं) कहा कि चाबाजीने अपना लीवनचरित लिख लिया है। मध्याह्की सामायिकके बाद वे उसे सुनावेंगे । सुनकर मेरे हर्घका पारावार न रहा । “सम्भव ट् यह्द स्वयं ही कभी तेरी इच्छा पूर्ण करेंगे” स््रगॉय ठीपचन्दनी वर्णकि उक्त शब्द स्पृतिमें श्रा गये । २ बजेसे पूज्य वर्णीजीने लीवनचरितके कुछ प्रकरण सुनाये । एक प्रकरण बाईजीको सम्मेदशिखर यात्रा गौर श्री पाश्वनाथ स्वामीके मन्दिरमें आलोचना के रूपमें उनकी मात्मकथाका भी या । सुनकर हृदय भर आया । बहुत बार प्राथना करनेके चाद आपने सब कापियाँ मुभके दे दीं । मुभके ऐसा लगा मानों निधि मिल गई ह्ो। अवकाश पाते ही मैंने प्रेस कापी करना शुरू कर दिया, लगातार ३-४ माह काम करनेके वाद पूरी प्रेस कापी तैयार कर पृज्यश्रीको दिखानेके लिए चरुवासागर गया । वहाँ ३-४ दिन अनवरत बैठकर मापने पूरी प्रेस कापी देखी तथा सुनी । भाग्यवश उसी समय वहाँ प० फूल्चचन्द्रजी शास्त्री बनारस, प० पन्नालालनी काव्यतीथं, बनारस और प० चशीघरनी व्याकरणात्वाय, चीना भी पहुँच गये | बाबू रामस्वरूपजी वह दॉथेदी। सब का आग्रह हुआ कि इसका प्रकाशन भी गणेशय्रसाद ब्णों जैन अन्थमाला




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