कयवन्ना और मायाका अपूर्व चमत्कार | Kayavanna Aur Mayaka Apurva Chamatkar

Kayavanna Aur Mayaka Apurva Chamatkar by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१७) मुख कुमलाया हुआ था । पश्चात परूपी नदीमें डूपा हुआ था! और साथमें आंखोंसे आंसूओंकी धारा चड रहो थी | ऐसे पुरुषको अपने सामने खड़ा छुआ देखकर नयश्री थोड़ी देर तक स्तब्य रहकर विचार करती है ! हां ये कया ! कौन ? कहांसे ! किस प्रकार ? यह पुरुष अन्दर आया । जयश्री मन ही मन विचार करती ही थी कि आया हुआ पुरुष कहने ढगा कि हे रुखने ! तुझको झीका नहीं करना चाहिये | में वहीं हूं ! मेरे कर्म मेरे ही काम आए । अब मैं पश्चाताप करता हूं । तेरा आ- श्रय छेने आया हूं । इस प्रकारसे कहते हुए शरमके मारे मरे जाता हूं । मेरा कलेना फटता है ।बप्त इससे अगे जानेवाछे युरुषका हृदय भर आया इस कारण सिवाय रोनेके और कुछ थी न कह सका । जयश्रीने उस पुरुपकों झटसे पहिचान लिया और शीघ्र ही उसका हाथ अपने हाथमें लेकर शांतवन किया भौर पंखेसे पवन डालकर कहन कभगी कि अफ़सोस न करे कमकी गती न्यारी है । पाठकगण । नवीन आए हुए पुरुषको अप. पहचान ही गये होगें | यह दूसरा कोई नहीं परन्तु अपनी कथाका नायक सथा जयश्रीका नाथ कबवनना था | अफसोस सद अफसोसके उदगार निकाठती हुई कहने ठगी कि मैंने कमी यह नहीं जाना था कि आपको रंगीला बनंवानेमें . एसा परिणाम आवेगा । अब आपको लेश मात्र भी दुःख नहीं मनाना चाहिये । क्योंकि यह सब दोष मेरे ही हैं ! प्राणनोथ ! अब आप साहस रखे । बिती वातकों याद न करे पिछली भूोंकों श




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