कयवन्ना और मायाका अपूर्व चमत्कार | Kayavanna Aur Mayaka Apurva Chamatkar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
56
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१७)
मुख कुमलाया हुआ था । पश्चात परूपी नदीमें डूपा हुआ था!
और साथमें आंखोंसे आंसूओंकी धारा चड रहो थी | ऐसे
पुरुषको अपने सामने खड़ा छुआ देखकर नयश्री थोड़ी देर तक
स्तब्य रहकर विचार करती है ! हां ये कया ! कौन ? कहांसे !
किस प्रकार ? यह पुरुष अन्दर आया । जयश्री मन ही मन
विचार करती ही थी कि आया हुआ पुरुष कहने ढगा कि
हे रुखने ! तुझको झीका नहीं करना चाहिये | में वहीं हूं ! मेरे
कर्म मेरे ही काम आए । अब मैं पश्चाताप करता हूं । तेरा आ-
श्रय छेने आया हूं । इस प्रकारसे कहते हुए शरमके मारे मरे
जाता हूं । मेरा कलेना फटता है ।बप्त इससे अगे जानेवाछे
युरुषका हृदय भर आया इस कारण सिवाय रोनेके और कुछ थी न
कह सका । जयश्रीने उस पुरुपकों झटसे पहिचान लिया और
शीघ्र ही उसका हाथ अपने हाथमें लेकर शांतवन किया भौर
पंखेसे पवन डालकर कहन कभगी कि अफ़सोस न करे कमकी
गती न्यारी है ।
पाठकगण । नवीन आए हुए पुरुषको अप. पहचान ही
गये होगें | यह दूसरा कोई नहीं परन्तु अपनी कथाका नायक
सथा जयश्रीका नाथ कबवनना था |
अफसोस सद अफसोसके उदगार निकाठती हुई कहने ठगी
कि मैंने कमी यह नहीं जाना था कि आपको रंगीला बनंवानेमें .
एसा परिणाम आवेगा । अब आपको लेश मात्र भी दुःख नहीं
मनाना चाहिये । क्योंकि यह सब दोष मेरे ही हैं ! प्राणनोथ !
अब आप साहस रखे । बिती वातकों याद न करे पिछली भूोंकों
श
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