व्याख्या प्रज्ञप्ति | Vyakhya Pragyapti
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
45 MB
कुल पष्ठ :
910
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जन, झागमों में उस युग की सामाजिक, राजनैतिक, घार्मिक, सांस्कृतिक श्र श्राथिक परिस्थितियों का
भी यत्न-तत्र चित्रण हुआ है । समाज श्र संस्कृति का भ्रध्ययन करने वाले शोधाधियों के लिए यह सामग्री बहुत
ही दिलचस्प और ज्ञानवद्धक है । भाषाविज्ञान और शभ्रस्य झनेक दुष्टियों से जैन श्रागमों का अध्ययन चिन्तन की
अभिनव सामग्री प्रदान करने में सक्षम है ।
जन आशगमों का सुल स्रोत वेद नहीं
कितने ही पाश्चात्य श्र पौर्वात्य विज्ञों का यह अभिमत है कि जैन श्रागम-साहित्य में जो चिन्तन
आया है, उसका मूल स्रोत वेद है । क्योंकि वर्तमान में जितना भी साहित्य है, उन सबमें प्राचीनतम साहित्य वेद
है। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है किन्तु झाधुनिक अत्वेषणा ने उन विज्ञों के मत को निरस्त कर दिया है ।
मोहनजोदड़ो और हुड़प्पा के उत्खनन में प्राप्त ध्वंसावशेषों ने यह सिद्ध कर दिया है कि श्रार्यों के भारत में श्राने के
पूर्व भारतीय संस्कृति और धमं पूर्ण रूप से विकसित था ** । शोधार्थी मनीषियों का यह मानना है कि जो श्रायं
भारत में बाहर से श्राए थे, उन भ्रार्यों ने वेदों की रचना की । जब वेदों में भारतीय चिन्तन का सम्मिश्रण हुआ
तो वेद जो श्रभारतीय थे; वे भारतीय चिन्तन के रूप में विज्ञों के द्वारा मान्य किए गए । आयें भ्रमणशील थे,
भ्रमणशील होने के कारण उनकी संस्कृति अच्छी तरह से विकसित नहीं हुई थी जबकि भारत के भाद्य निवासियों
को संस्कृति स्थिर संस्कृति थी । वे एक स्थान पर ही अवस्थित थे, इस कारण उनकी संस्कृति झार्यों की संस्कृति
से अधिक विकसित थी, वह एक प्रकार से नागरिक संस्कृति थी । बाहर से श्राने वाले शभ्रायों की श्रपेक्षा यहाँ के
लोग अधिक सुसंस्कृत थे । जब हम वेदों का संहिताविभाग श्रौर ब्राह्मण ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन करते हैं तो
उन ग्रन्थों में झायोँ के संस्कारों का प्राधान्य दृगगोचर होता है, पर उसके पश्चात् लिखे गये झारण्यक, उपनिषद्,
धमंशास्त्र, स्मृतिशास्त्र प्रादि जो वैदिक परम्परा का साहित्य है, उसमें काफी परिवतंस हुमा है। बाहर से श्राए
हुए आर्यों ने भारतीय संस्कारों को इस प्रकार से ग्रहण किया कि वे शभ्रभारतीय होने पर भी भारतीय बन गए । इन
नये संस्कारों का मूल अवैदिक परम्परा में रहा हुआ है । वह अवंदिक परम्परा जन भ्ौर बौद्ध परम्परा है । अवेदिक
परम्परा के प्रभाव के कारण ही जिन विषयों की चर्चा वेदों में नहीं हुई, उनकी चर्चा उपनिषद् भ्रादि में हुई है ।
वेदों में झात्मा, पुनर्जन्म, ब्रत आदि की चर्चाएं नहीं थीं, पर उपनिषदों में इन पर खुलकर चर्चाएं हुई हैं श्ौर
भ्राचारसंहिता में भी परिवर्तन श्राया है । इस परिवतंन का सुल श्राधार श्रवेदिक परम्परा रही है। दूसरे शब्दों
में यों कहा जा सकता है कि वेदों के पश्चात् जो ग्रस्थ निमित हुए उन पर श्रमणसंस्कृति की छाप स्पष्ट रूप से
निहारी जा सकती है ।
ः वेदों में सष्टितत्त्व के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है तो श्रमणसंस्कृति में संसारतत्त्व पर गहराई से
विचार किया गया टद । बैदिक दुष्टि से सुष्टि के मूल में एकं ही तत्त्व है तो श्रमणसंस्क्ृति ने संसारतत्त्व के मूल
में जड़ और चेंतन ये दो तत्त्व माने हैं । बेदिक परम्परा में सृष्टि कब उत्पन्न हुई ? इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त
किया गया है तो श्रमणसंस्कृति की दृष्टि से संसारचक प्रनादि काल से चल रहा है । उसका न तो झ्ादि है प्रौर
नशझन्त ही है । वेदों में अहिसा, सत्य, श्रस्तेय, न्रह्मच्य पर अपरिय्रह इन महाब्रतों की चर्चा नहीं हुई है । यहाँ
तक कि हिंसा भ्ौर परिग्रह पर वल दिया गया है । वाजसनेयी संहिता 5९ में पुरुषमेधयज्ञ में १८४ पुरुपों के चध
२९. तो एल 0 1. 806 190ए्टा॥--# एपं्राफए$6 0. 18. ८811] 01५18565;--1000-/518.11
(प्ा(एए6--?8ट्रड 47. एपणीाट्क्रपिंणा प्७81 1 059,--पा. २. 7, 12980061087.
३०. वाजसनेयी सहिंता, ३०!
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