देश दीपक | Desh Deepak

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Desh Deepak by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ रै० ] कभी हाथ से जाने न दिया था । श्रा्णों पर आ बनने पर भी शक्ति के उपासक यरूप की तरह झाज़च इत्यादि ने कभी फरेव, दया, घोखा श्र भूठ से काम न लिया था ।, छुन्दू-त्यागा न सत्य घर्स को आराम के लिये । छोड़ा न आान को कभी घन घाम के लिये |! शक्ति-न छोड़ा था इसी लिये तो दरिश्चन्द्र ने वर्षों बनीं की खाक छानी थी । छुन्द-इसी लिये ही पाएडवी पर श्रापदा श्ाती रही | सन्तती दशरथ की बन में ठोकर खाती रही ॥ घम्मे-एरन्ु, अन्त में उन्हीं की जय टुई थी शोर चारों युग प्रयन्त उन्हीं की जय 'ध्वनि यूंजती रहेगी । दोददा-यदह जब तक संसार का चलता हे व्यवद्दार | होती जायेगी सदा उन की जय . जयथकार ॥ शक्ति-झव कलिकाल का नाम है, आज तो सेरे ही उपासको के लिये घन, घाम छोर आराम है | छुम्द-उपासक हैं जो तेरे उन पे ही तकदीर हंसती हे ।' है आठो पहर रोना और घर में फ़ाका-सस्ती है॥ मगर मेरे उपासक को सदा श्रशरत परसती है । सदा चरसात खुशियों की घटा बन रचरसखती हैं ॥ , धर्म्म-दां मैं जानता हूँ कि तेरे रइभवन शराव' और कदाब से मासूर हैं तेरे भरडार सशीनग्ा, तोपों श्रौर कारतूखा से भरपूर है परन्तु सच्चो खुशी झोर परमानंद के सामान तेरे विलासभवन से को दूर है | 'छुन्द-बदों का बद तो नेकों का सदा परिणाम अच्छा है । जो है चदनास उस से दर तरह शुम लाम अच्छा है ॥ न न




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