जैन संप्रदाय शिक्षा | Jain Sampraday Shiksha

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Jain Sampraday Shiksha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अध्याय ॥ थ् चाहिये, किन्तु उन में शक्ा नहीं करनी चाहिये ॥ यह सन्धियूत्रकम से प्रथम चरण समाप्त हुआ ॥ यह प्रथम अध्याय का व्याकरण विषय नामक दूसरा प्रकरण समाप्त हुआ ॥ तीसरा श्रकरण ( वंणविचार ). १--भाषा उसे कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य अपने मन के विचार का प्रकाश करता है ॥ २--माषा वाक्‍्यों से, वाक्य पदों से और पद अक्षरों से बनते हैं | ३--व्याकरण उस विद्या को कहते है जिसके पढ़ने से मनुष्य को शुद्ध २ बोछने अथवा छिखने का ज्ञान दोता है ॥ ४--व्याकरण के मुख्य तीन भाग है--व्णविचार; शब्दसाधन और वाक्यविन्यास ॥ ५--वणेविचार में अक्षरों के आकार, उच्चारण और उनकी मिलावट आदि का वर्णन है ॥ ६---शब्दसाधन में शब्दों के भेद, अवस्था और व्युत्पत्ति का वर्णन है ॥ ७--वाक्यविन्यास में शब्दों से वाक्य बनाने की रीति का वर्णन है| वर्णविचार ॥ १--जक्षर-शब्द के उस खंड का नाम है जिस का विभाग नहीं हो सकता ॥ २--जक्षर दो प्रकार के होते है खर और व्यज्ञन ॥ ३२--खर उन्हें कहते हैं जिनका उच्चारण अपने आप ही हो ॥ ४--खरोंके इस और दी ये दो भेद है, इन्दीं को एकमात्रिक व द्विमान्रिक भी कहते हैं ॥ ५--व्यकषैन उन्हें कहते है जिनका उच्चारण खरकी सद्दायता बिना नहीं हो सकता || ६--अनुखार और विसग भी एक प्रकार के व्यज्न माने गये है ॥ ७--किसी अक्षर के आगे कार शब्द जोड़ने से वही अक्षर समझा जाता है। जैसे क वा काकार इत्यादि ॥ ८--जवतक खर किसी व्यज्ञन से नदी मिछ्ते तबतक अपने असठी खरूप में रहते हैं परन्दु मिठने पर मात्रारूप में हो जाते हैं. जैसे कु+अ-्क, कूकइन्कि, कूकउन्कु कुप-एन्के, इत्यादि | वि न सन लिलकस्थयसस्ययततस्रिसिसिसिससिय 222 १. यद्यपि यद्द प्रकरण व्णीविचार नामेक्र दै तथापि उसका आरंभ करने से पूर्व व्याकरण की कुछ आव- इगक चाते भथम दिखाई गई दे ॥. २--खय राजन्त इति स्वरा: ॥ ३--अन्वगू भवति व्यज्ननमू.॥




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