अनुग्रह मार्ग | Anugrah Marg
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
82
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १४५
विचारितो यर्वसुतथी तथात्व॑ श्रापितो वलात् ॥
स्वभावदुटा जीवाहि स्वपमोंत्कर्पमाबुकाः ।
अ्तस्तथाविर्ध कृत्वा स्वात्मसात्कुरुते हरिः ॥
[ साय० तत्वदीपः $ स्कंप ते
भगवान् ने झजामिल को पहले दी दास्यके योग्य निश्चित
कर रकक्खां था पर स्वभाव के दोप से उसमें जब गर्वादि देव दोप
श्याये तब उस दोप को दूर कराने के लिये उसे नीचे गिराया श्यौर
वह्िमुखंता दूर क़राकर फ़िर स्वीकार किया, क्योंकि भगवान हरि
हैं । निर्दोप वनाकर ही प्रदण करते हैं । जीव स्वरूपत. शुद्ध हैं
श्मक्तरात्मक हैं, पर श्वन्तः:करणध्यास 'ादि के द्वारा जब इसमें
स्वधमं आदि की उत्क्पभावना प्रवृत्ति गे '्ञादि टोप आजाते
हैं, तब भगवान् उसे दरड देकर शुद्ध कर लेते हैं श्औौर श्रात्मीय
कर लेते हैं। यदद कृपा का ही लक्षण है ।
विशेपल्णा पुष्टि लीला में वाघकों का नाश नहीं,
उनका भी रक्षण है । उनके स्वभाव की भी रक्षा है ।, गाली देते
देते उनका मोक्ष करते हैं । कलियुग के स्वरूप से ही उसे साधन
चना लेते हैं। ्वासुरो के कर्मी कां भी नाश नहीं । जहर देने से
ही पूतना को मो दिया । उनके किसी परिवार परिकर का नाश
नहीं, पर उन सबका परिचतेन कर देते हैं । यही अलौफिक रदा
कद्दी जांती हे। जब भगवान् का शनुमह होता हैं तय दुष्ट
समय सदूरुण वाला हो जाता है, दुप्ट कमें सत्कर्म द्ोजाते हैं,
दुस्वभाव सत्स्वभाव होजाता है, छासुर देव हो जाते हैं और
नरक मुक्ति मे चदल जाते हैं ।
पूतना रानसी थी, उसका कमें भी 'झासुर था, श्सका
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