हरिश्चन्द्र तारा | Harishchandra Tara
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
336
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| राजा का मोह
दरिश्वन्द्र अवश्य ऐसे वँघ गये; कि उन्हें बिना तारा के; सारा
संसार सूना दिखाई देने लगा । तारा; उनकी आऑखा का तारा वन
गई और थिना तारा के उन्हे एक घड़ी भी कटनी मुश्किल जान
पड़ने लगी । इस समय, महाराजा-हरिश्वन्द्र; केवल खी-सुख को
ही सुख मान वेंठे । उठते-बैठते, खाते-पीते; उन्हे तारा ही तारा
की घुन लगी रहती । देश और राज्य में क्या होता है; कमेंचारी-
गण प्रजा के साथ केसा व्यवहार करते हैं, प्रजा सुखी है या दुखी;
आदि वातों की उन्हें किचित भी चिन्ता न रही ।
राजा, जब स्वयं प्रजा की ओर से उदासीन होकर विलास
में डून जाता है, तव प्रजा और देश की क्या दशा होती है, इसके
इतिहास में अनेकों प्रमाण मौजूद हैं | यहाँ पर भारत-सम्राटू
प्रथ्वीराज चौहान ओर महाराणा उदयसिह का नाम ले लेना ही
पयोप्त हे । दृरिश्न्द्र के विलासी वन जाने और राज्यकाय न
देखने से भी यही दशा होने लगी । प्रजा का धन शोषण करके;
क्मचारीगण अपना हित-साधन करने लगे और प्रजा के सुख-
दुख की चिन्ता करनेवाला कोई न रहा ।
महाराजा हरिश्रन्द्र, जैसे-जेसे विलास-मग्न होते जाते, वैसे
ही वेसे उनकी कान्ति; सुन्दरता, वीरता; धीरता, वुद्धि, बल, आदि
का भी नाश होता जाता था । किसी कवि ने कहा हे”-- '
कुरख् मातन्न पतत्न भुन्ठ सीना! हताः पश्चमिरेव पंच 1
एकः प्रमार्दी सकथ न हन्यते यः सेवते परचमिरेव पंच ॥
वर्थात--दरिण श्रवण के विपय-सुख से; हाथी उपस्पेन्द्रिय
के विपय-सुख से, पतड्ड नेत्र के विपय-सुख से, भोरा नाक के
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