पद घुँघरू बाँध | Pad Ghunghru Bandh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
180
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१/अहं जज्ञान है--प्रेम शान दे
प्रिय चदना,
प्रेम । पत्र मिला है । हृदय जब तक प्रेम से झंक्ृत न हो, तब तक एक
रिक्तता और अभाव का अनुभव होता है। प्रेम के अतिरिक्त आत्मा की पूर्णता
की अनुभूति और किसी द्वार से नहीं होती है । प्रेम के अमाव मे आत्मा में
नया है ? अह और केवल महू 'मैं' और केवल “मैं” । यह मैं' एकदम मिध्या
है । छाया की भी वह छाया है । उसकी उपस्थिति हो रिवितता है । वह है, यहीं
अभाव है । अह की छाया प्रेम के प्रकाश में तिरोहित हो जाती है । और तब
जो छोष रह जाता है, बही ब्रह्म है । प्रेम साधना है, ब्रह्म सिद्धि है ।
मैं कहता हूँ प्रेम शान है । मौर अज्ञान कया है ? अहं अज्ञान है। और
जब अह ही ज्ञान की खोज करने लगता हैं तो वैसा ज्ञान महा भशान बने जाता
है। भहूं की खोज से पांडित्य आता है । पाडित्य सुक्ष्मतम परिग्रह है । प्रज्ञा
का जन्म अहूं से नहीं, प्रेम से होता है । इसलिए ही अहकार प्रेम से सदा भय-
भीत रहता है। वह राग कर सकता है, विराग कर सकता है । लेकिन, प्रेम ?
नहीं । प्रेस तो उसकी मृत्य है ।
प्रेस न राग है न विराग । प्रेम परम वोतरागता है ।
प्रेम सम्बन्ध नहीं है। प्रेम है स्वय की स्थिति । राग किसी से होता है ।
विराग भी किसी से होता है । प्रेम स्वय में होता है । वह है सहज स्फुरणा--
अकारण और अप्रेरित । और इसीलिए राग भी बाँषता है, विराग भी बाधता
है । प्रेम मुक्त करता हैं । प्रेस मुक्ति है ।
क
धर्म क्या है ?
सगठना या साधना ?
धर्म संगठित होते ही धर्म नही रह जाता है । सगठन के स्वार्थों की दिदा
धर्म की दिशा से भिन्न ही नहीं, विपरीत भी है। इसलिए घर्म के नाम पर खडे
सप्रदाय बस्तुत धर्म की हत्या में ही सलग्न रहते है । धर्म हे वेयक्तिक चेतना-
जागरण । संप्रदाय है, भीड़ का शोषण । धर्म के लिए चेतना का भीड से, समूह
से स्वतन्त्र होना आवदयक है, जबकि सप्रदाय चेतना की ऐसी स्वतत्रता का दात्रु
ही हो सकता है । संप्रदायो की दासता मे केवल वे ही हो सकते है जो कि स्वय
के मित्र नही है । परतत्रता शत्रु है । स्वतत्रता ही मित्र है ।
प्रिति साध्वी चदना]
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