रस सिद्धान्त को दर्शनिक और नैतिक व्याख्या | Ras Siddhant Ki Darshnik Aur Naitik Vyakhya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
227
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६] [ रस-सिद्धान्त की दार्शनिक और नैतिक व्याख्या
भी
भर
भावात्मक व्याख्या है, और दूसरी बौद्धिक । साहित्यकार और दाधानिक--दोनों
का ही केन्द्र जीवन है और उद्दृद्य है उसकी व्याख्या । किन्तु इससे यह निष्कर्ष
नहीं निकाला जा सकता कि किसी भी एक दादांनिक हष्टि के आधार पर
साहित्य का विवेचन-मूरल्यकन किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि
साहित्य तथा ददनशास्त्र में जहाँ समानता है वहाँ बड़ा निर्दिष्ट अन्तर भी है ।
और वह यह कि दर्शन का मूल अस्त्र है तक, तथा साहित्य का प्राण है भाव ।
साहित्य में जो विचार-तत्त्व भी आता है वह प्रायः भाव के आधीन होकर ही ।
दर्दन कीं अनुभूति के लिए वासना का अभाव होना चाहिए तथा साहित्य की
अनुभूति के लिए उसका होना अनिवायं है । दर्शन और साहित्य के इस मूलभूत
अन्तर को स्पष्ट रूप से समभ लेने के उपरास्त सहज ही सिद्ध हो जाता है कि
यदि कोई दार्शनिक अपनी विशिष्ट हृष्टि के आधार पर साहित्य का मूल्यांकन
करेगा, तो उसे साहित्य के विद्यार्थी स्वीकार नहीं कर सकते । प्लेटो ने जो
साहित्य का सूल्यांकन किया है, वह इसी कारण अग्राह्म है । हमारे यहाँ भी
शुद्ध दाशंनिकों ने “'काव्यालापाइच वर्जंयेतु कहकर उसी उपक्रम का परिचय
दिया है जिसके दर्शन प्लेटो में होते हैं । हमने उसे भी स्वीकार नहीं किया है ।
यदि साहित्यिक हप्टि से दशन का मुल्यांकन नहीं हो सकता तो दाशंनिक टृष्टि
से साहित्य का मूल्यांकन भी असम्भव है ।
साहित्य और दर्शन का सम्बन्ध हमारे यहाँ भी रहा और रोम, ग्रीक आदि
में भी और यह सम्बन्ध आज तक चला भा रहा है । लेकिन हमारे दर्शन-दास्त्र
में तथा पारचात्य द्शन-शास्त्र में एक महत्वपूर्ण भेद है जिसका इस प्रसंग में
उल्लेख करना उपयोगी होगा । पाइ्चात्य दर्शन का आधार तक ही रहा है ।
पारचात्य दाशनिकों के लिए दर्शन यद्यपि जीवन से सम्बद्ध है लेकिन उन्होंने
प्राय: दर्शन और जीवन के इस सम्बन्ध को अनुश्ुति का विषय बनाने की चेप्टा
नहीं को । लेकिन भारतीय दर्शन सदैव अनुभूति को साथ लेकर चला । यह
स्पष्ट घोषणा की गई कि अनुभूति के बिना केवल ज्ञान से या वाक्य-ज्ञान से
किसी का उद्धार नहीं हो सकता । दर्शन का फल तभी मिलता है जब उसका
अवसान अनुभूति में हो । इससे हमारे द्शनशास्त्रियों ने भी अनुभूति की ही
परम मुल्य के रूप में माना है । सत्य की अनुभूति परम शिव और परम आनन्द
की अनुभुति है । जीवन की महत्तम अनुभूति में इन तीनों गुणों का समन्वय है ।
भारतीय काव्य-शास्त्र के अनुसार साहित्य का परम लक्ष्य सामाजिक को
रसानुभूति में मग्न करना है। यही साहित्य की परम अनुसूति है जो
सत्य है, शिव है और आनन्दमय है। इस प्रकार भारतीय काव्य-शास्त्री
के सामने-जजो कि दर्शन-शास्त्र का भी ममंज्ञ हुआ करता था--दो
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