भारत में शिक्षा | Bharat Me Shiksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डा भारत में दिक्षा सभी को पढ़ना पढ़ता था । अपने-अपने वर्ण के सनुसार विद्यार्थीगण वेद तथा वेदाज् का अध्ययन करते थे । नैतिक दिक्षा छुछ तो उपदेश से और कुछ आश्रम के वातावरण से मिलती थी । शारीरिक दिक्षा के लिए, प्राणायाम और व्यायाम का विधान था | यों तो दैनिक नियमित कार्यों के सम्पादन में ही पर्यात व्यायाम हो जाता था, जिसमें प्रत्येक विद्यार्थी को लकड़ी काटना, पानी भरकर ठोना तथा आश्रम की स्वच्छता करना व्यावश्यक होता था । व्यावसायिक शिक्षा वर्णो के अनुकूल दी जाती थी । ब्राह्मण पोरोहित्य, दददन, कर्मकाण्ड आदि विषय का अध्ययन करते थे, क्षत्रिय दंण्ड-नीति, राज-नीति, सेन्यशास्त्र, अधथशास्त्र, घनुरवेद भादि सीखते थे तथा बेश्य को पु-पालन एवं कृपि-चिद्या में विशेष योग्यता प्राप्त करना पड़ती थी । इन विषयों के सिवा भायुर्वेदादि विषय अपनी अपनी इच्छा के अनुसार सभी छात्र सीख सकते थे । एक विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि अनेक विषयों के अध्ययन-अध्यापन की सुविधा रहते हुए; भी, प्रत्येक छात्र को किसी एक विषय में पारइगत होना पड़ता था । साधारणतः पत्चीस वर्ष की आायु में तीनों वर्णों की शिक्षाएँ पूरी दो जाती थीं; पर ब्राह्मण को यह विशेषाधिकार था कि.वदद आजीवन स्वेच्छापूवक विद्याजन करे--' यावज्जीवमधीते विप्रः । शिक्षा समाप्त होने पर तथा. गुरु-दक्षिणा देकर प्रत्येक विद्यार्थी विवाहोपरान्त ग्रहस्थाश्रम में प्रविष्ठ होता था । आपाये या गुरु सब से ऊपर के वर्गों के छात्रों को पढ़ाते थे । ये विद्यार्थी अपने से निम्न वर्ग के छात्रों को सिखाते थे, और वे अपने से नीचे वालों को । इस प्रकार सब से नीचे वर्ग के छात्रों के सिंवा, गुरुकुछ में संघ गुरु-ही-गुरु रहते थे । अध्यापन के समय, प्रत्येक विद्यार्थी के व्यक्तित्व की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था | कारण, वैदिक काल में गुरु किसी विद्यालय या वग के शिक्षक न थे । गुरु का कर्तव्य केवल पढ़ाना ही न था । उसका धर्म था कि बह प्रत्येक छात्र को सदाचारी बनावे, उसके आचरण की रक्षा करे, उसका चरित्र-गठन करे, उसके मोजन-वस्त्र का प्रबन्ध करे तथा उसके प्रति अपने पुत्र के समान वात्सल्यमाव दिखावें । विद्यार्थी भी गुरु को पिता और देवता समझता था । उसे ' आचार्यदेवो भव की शिक्षा दी जाती थी । यह सब कुछ सम्भव था, क्योंकि दिक्षा सावास-प्रणाली के अनुसार दी जाती थी और गुरु तथा शिष्य साथ-साथ रहते थे । इस प्रकार प्राचीन भारत का दिष्य गुरु का केवल विद्यार्थी ही नहीं होता था, वरन वह गुरु-पस्वार का एक सदस्य भी होता था । इस शुरु-परिवार में गरीब और अमीर साथ-साथ रहते और विद्याध्ययन करते के । वहीँ




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