आंध्र का सामाजिक इतिहास | Aandhr Ka Samajik Itihas
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
48 MB
कुल पष्ठ :
469
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
वेंकट राव - Venkat Rav
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सुरवरम् प्रताप रेड्डी - Survaram Pratap Reddi
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भुसिका ह
“चरवाहे ग्वाले दिला-खण्ड शय्या पर
सोये “गोंगडि” श्रोढ़े 'बंदार' बिछाकर ।” *
जसे वर्णन हमारे लिए बड़े ही महत्त्व के हैं । इसी प्रकार :
“काबिरंग * घबलांशुक के झ्राभोग भेद कर
रक्तिमांशुमय कांति नितंबों की ज्यों बाहर
वस्त्र-पटल के पार श्रा रही हो छन-छनकर ।””
मनु चरित्र' के इस वर्णन को तो हम ठीक से समभक्त भी नहीं
पाते ।* किन्तु इसी विषय पर “शुक सप्तति' का यह वन देखिए :
“ग्रभी-झभी घलकर श्राई उजली साड़ी-सी भलमल
किनारियों पर टंँके, आाब से टलसल, नव मुक्ता दल
पद-नख-पंक्ति-प्रभा को भुक-भुक कर सलाम करते हैं ।”
सुन्दरी का चित्र आँखों के आगे स्पष्ट खिंच जाता है और उस
समय की युवतियों के वेभव का बखान करने लगता है ।
कभी-कभी तो ऐसा होता है कि पोधथे-का-पोथा पढ़ जाइए, पर
काम की बातें बड़ी कठिनाई से एकाध सिल गईं तो सिल गईं, श्रौर बस ।
_._.. सामाजिक इतिहास की इृष्टि से देखिए तो श्रनेक ग्रन्थों के प्ररोता
१. शुक सप्तति ।
गोंगड़ि : चरवाहों का कंबल । एक छोर लपेटकर सिर पर डाल
लेते हैं, दूसरा टखनों तक लटकता रहता है ।
बंदार ? वंदा । श्रघसुखी पत्तियों चुनकर बिछाने पर बड़ी झ्रारास-
देह होती हैं ।
२. काबिरंगु: श्रत्यंत ही हल्के लाल रंग का कपड़ा, जिसे श्रान्घ्र
महिलाएं श्राज भी पहनती हैं ।
३. इसलिए कि वणंत हिमालयवासिनी वरूधिनी का है । उसका
'. रक्तिम गोरा रंग तो ठीक, पर यह बविदिष्ट श्रानप्र पहनावा समभ्
सें नहीं झाता । न
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