आंध्र का सामाजिक इतिहास | Aandhr Ka Samajik Itihas

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Aandhr Ka Samajik Itihas  by वेंकट राव - Venkat Ravसुरवरम् प्रताप रेड्डी - Survaram Pratap Reddi

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सुरवरम् प्रताप रेड्डी - Survaram Pratap Reddi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भुसिका ह “चरवाहे ग्वाले दिला-खण्ड शय्या पर सोये “गोंगडि” श्रोढ़े 'बंदार' बिछाकर ।” * जसे वर्णन हमारे लिए बड़े ही महत्त्व के हैं । इसी प्रकार : “काबिरंग * घबलांशुक के झ्राभोग भेद कर रक्तिमांशुमय कांति नितंबों की ज्यों बाहर वस्त्र-पटल के पार श्रा रही हो छन-छनकर ।”” मनु चरित्र' के इस वर्णन को तो हम ठीक से समभक्त भी नहीं पाते ।* किन्तु इसी विषय पर “शुक सप्तति' का यह वन देखिए : “ग्रभी-झभी घलकर श्राई उजली साड़ी-सी भलमल किनारियों पर टंँके, आाब से टलसल, नव मुक्ता दल पद-नख-पंक्ति-प्रभा को भुक-भुक कर सलाम करते हैं ।” सुन्दरी का चित्र आँखों के आगे स्पष्ट खिंच जाता है और उस समय की युवतियों के वेभव का बखान करने लगता है । कभी-कभी तो ऐसा होता है कि पोधथे-का-पोथा पढ़ जाइए, पर काम की बातें बड़ी कठिनाई से एकाध सिल गईं तो सिल गईं, श्रौर बस । _._.. सामाजिक इतिहास की इृष्टि से देखिए तो श्रनेक ग्रन्थों के प्ररोता १. शुक सप्तति । गोंगड़ि : चरवाहों का कंबल । एक छोर लपेटकर सिर पर डाल लेते हैं, दूसरा टखनों तक लटकता रहता है । बंदार ? वंदा । श्रघसुखी पत्तियों चुनकर बिछाने पर बड़ी झ्रारास- देह होती हैं । २. काबिरंगु: श्रत्यंत ही हल्के लाल रंग का कपड़ा, जिसे श्रान्घ्र महिलाएं श्राज भी पहनती हैं । ३. इसलिए कि वणंत हिमालयवासिनी वरूधिनी का है । उसका '. रक्तिम गोरा रंग तो ठीक, पर यह बविदिष्ट श्रानप्र पहनावा समभ् सें नहीं झाता । न




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