चिद्विलास | Chidvilas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२र्‌ अपने आध्यात्मिक सुखको छोड़कर निरन्तर लोकहितमें लगे रहते हैं, वशिष्ट जैसे योगीदवर त्रह्मत्ानी लोकहितके लिए मोक्षसे मुँह मोड़कर पुनः मनुष्य-दारीर घारण करते हैं; बोधिसत्व निर्वाणकी ओरसे मुँह फेरकर छोकदहितके लिए एक बार माताके गर्भमें प्रवेश करते हैं। इन पुराने आदर्शोकी विस्दृतिने हमको कहींका न रखा । योगी और सच्चा दार्श- निक होना तो कठिन है ही; हम कर्मशील सदूण्इरथ; अच्छे नागरिक, भी न रद पाये । जिन तपोधनोंने उपायान्तरके अभावमें लोकहितके लिए राजा वेणको अपने हाथों मारा उनकी कथा हम भूल गये; आज वहीं महासाघु है जो समाजके घकघक्‌ ज्ते हुए विशाल भवनपर एक छोटा पानी डालनेका दायित्व अपने ऊपर नहीं लेना चाहता | मेंने कई स्थलौपर साम्रह कहा है कि योगाभ्यासके बिना दार्शनिक श्ञान नहीं हो सकता । आज निदिध्यासनकी परिपाटी, उठ गयी है। वेद-विद्याल्यों, विश्वविद्यालयों और पाठशालाओंमें पुस्तकें रटी जाती हैं । आजसे कई सो वर्ष पहिलेके शास््रार्थोम जो तब! काम आते थे वह आज भी कण्ठर्थ कर लिये जाते हैं । दर्शनका कर्म्म और साक्षात्कारसे इतना विच्छेद्‌ हो गया है कि अपने सम्बन्धमें 'ताम्बूलदयमासनश्य लभते यः कान्यकुब्जेदवरात्‌” की उक्ति करनेवाला श्रीहर्ष भी वेदान्तकी दिक्षा देनेका अधिकारी समझा जाता है। संन्यासी तो बहुघा ग्रन्थ पढ़नेका भी श्रम नहीं उठाते । उनको चारो महावाक्योंको दुहरा लेनेसे ही ्रहमज्ञान हो जाता है! जो ढोग सायंप्रातः सन्ध्या करते समय ठीकसे तीन प्राणायाम नहीं कर सकते वह छोक्ेंको योगशास्त्रके रहस्य समझानेका दुम्साइस करते हैं । « में यह नहीं कहता कि पुस्तकॉंको न पढ़ना चाहिये। यदि ऐसा समझता तो इस पुस्तककों लिखता ही क्यों । पुस्तक श्रवण ओर मननकी सामग्री है परन्तु केवल श्रवण और मननसे काम नहीं चल सकता । साक्षात्कारके लिए» अपना और जगत्‌का स्वरूप जाननेके लिए, योगा- म्यास अनिवाय्यंतया आवश्यक है ।, इसमें विभाषाके लिए स्थान ह्दी




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