विज्ञान प्रयाग के मुख पात्र | Vigyan Prayag Ka Mukh Patra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ विज्ञान, अक्टूबर, १९३९ बियर धन दाथमें सोंपने पर मजबुतसे मजबूत भरोसेके योग्य यंत्र टूट कर ढेर हो जाता है । ८--जनताकी सहदूलियत बायछरोंके फटनेसे और उसकी चिमनोमेंसे अंगारे निकल कर आग लगनेकी सदैव जाखम रहती हे । अतः बायलरोंके चछाने वाछे बड़े अनुभवी भौर सरकारी सनद प्राप्त होने चाहिये। चिमनियोंमें अंगारोंका रोकने के लिये. विद्षेष. सामान ( 3871 911658067 ) [ भांग ५० किक भललवफमलकयकयमिगकनयेगल मक्का किपरकककममलककमकलफकपगर धन भकतफवकप्रधकमममस पंथ दतप्रपविर तरल लपिसालाकाककेज भफरकिपिफिल कक सकल करन मम पकन किम गलिफेमम तप प्रभार पक छगाने. चाहिये। कई बड़े-बढ़े.. दहरोंमें तो घुभाँ करने की भी सख्त मनाई होतो है। इसलिये ऐसी जगहोंसे पहिछे तो भट्टीकी आग ही इतनी अच्छी प्रकारसे जछे कि धूआँ न हो भौर फिर चिमनी इतनी ऊँची छगानी चाहिये कि लिससे शघुआँ थोड़ा बहुत जा कुछ होवे भो, वह सकानोंके बहुत उऊँचेसे साफ निकक जावे । यदि धघुर्एकी बिछकुकछ ही सख्त मनाई हो तब या तो बिजलीसे काम छिया जाय या गैस भथवा तेछ-इंजनों- से जैसा भी मौका हो । ाच्य शल्य-शास्त्र राष्ट्रकी संस्कृति भौर राष्ट्रीयता बहुतांदमें उसके वेज्ञानिक उन्नति पर निभर रहती है । विज्ञानकी कोई भी शाखा जीवित रहनेके लिये भौर उसकी भविरत वृद्धि जारी रददनेके लिये उसके प्रति उस विशिष्ट दशास्त्रके दाखज्ञोंके साथ-साथ सामान्य जनताके सहानुभूतिकी भी भव्यन्त आवश्यकता होती है । इसीलिये शास््के विषयका सरछ परन्तु शास्-झुद्ध लेख द्वारा सामन्य ननतामें प्रचार करना शास्त्रज्ञोका कतेंब्य है। नेत्रों पर का चच्चमा जिस प्रकारका हो उसके अनुसार दृश्यवस्तुकी भाकृति स्वास्थ्यकी विकृति दिखाई देती है । दास्त्रकी ओर देखनेकी दृष्टि बदल जानेसे कभी-कभी नये विचार और भाविष्कार होते है। और इसीछिये शास्त्रकी उन्नति होती है । प्राच्य-शब्य शास्त्रके विषयमें इस लेखमें निम्न विषयों पर विचार करनेका विचार है। (१, प्राच्य दाद्य-दयास्त्रका अत्यन्त उज्नतिका काल (२) वर्तमान प्राच्यशल्य-शास्त्रका भाघुनिक पाश्चात्य दाव्य-दास्त्रके साथ तुलनात्मक विचार शाब्नको उन्नतिका काल आयुवदीय शब्य-शास्त्रके विषयमें शुश्चतसंहिता ही एक- मेव प्रधान अ्रंथ विद्यमान है। इसी प्रंथके आधार पर इमको शास्त्रके भूतकाछीन उन्नतिकी कल्पना भर भविष्य कारन उन्नतिकी नींव डालनेका प्रयलर करना है। अनेक मार्गों द्वारा सिद्ध होता है कि वतेमानमें सुश्रतसंहिताके नामसे उपलब्ध अथ मूल सुश्रताचाय लिखित नहीं है । यह बोद्धकालीन नागाजुन नामक रसायेनज्ञ का किया. हुआ मूरुू सुश्रुतसंडिताका संस्करण है । महदाभारतमें और अथवंवेदमें विधवामित्रके पुत्र सुश्रतका वर्णन भाता है । इससे पुराण-इतिहास-विदोंकी यह राय है की मूल सुश्रुतसंहिताका काक इंसवी सनके पूव १००० साकके बाद नहीं भा सकता । अतः चतंमान दाल्य-शास् का ज्ञान आजसे करीब-करीब ३००० साकके पूवे जा ज्ञान था वही है । उसमें कुछ भी उच्नति नहीं हुई है । सुश्नुतसंहिताके पू्वमें आयुर्वेदका संपूर्ण ज्ञान भथवी वेदमें संकछित था । भायु्वेदके अथवेका उपाग माना जाता है। जैसे सुश्रुतसंदितामें लिखा है। 'इद खल्ु श्रयुवेदो नाम यदुपांगमथवंबेद्स्य-इत्यादि ( सु» सं० ० 9 सू० ६ ) ऋणगवेदमें कटे हुए पैब या हानकी जगह कृत्रिम घातुसे बनाये हुए भवयवका उपयोग किये ज्ञानेका उल्लेख है । यथा -- चरित्रं हि. वेरिवाच्छेदि पणंम्रू भाजा.... खेव्स. परितक्णयां । सद्यो जंघा मायपीं विधपलाये घने हिते सतंवे प्रस्यघनम्‌ ॥ ( ऋण वेद. प्र० मं० १५ ऋ ११६ सू-)




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