राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पी एच॰ डी॰ के लिए स्वीकृत | Rajasthan Vishvavidhalay Dvara P H D Ke Liye Svikrit

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अध्याय साशश्य-निरूपण की आवश्यकता दिश्यमूलक अलड्टारों के विवेचन के लिए यह परम आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम सादश्य के स्वरूप को पूर्ण रूप से समझ लें तथा उसके क्षेत्र पर विचार कर लें । सादरघ सादृश्य की परिभाषा निम्न प्रकार से की गई हैः “तथ्धिचनते सति तद्वगतभुयोवर्मवत्वम्‌”-काव्यप्रकाश टीका पुष्ठ ५४२ इस परिभाषा के अनुसार प्रिन्न वस्तुओं में धर्म अथवा धर्मों की घारणता के आधार पर सादृश्य होता है । उदाहरण के लिए मुख तथा चन्द्र को नें तो उनके सादृश्य को इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-- “चत्द्रभिन्नवे सति चन्द्रगताल्लादकत्वमु मुे चन्द्रसादश्यमु' यहां मुख तथा चन्द्र भिन्न हैं, परन्तु आल्लादकता उन दोनों में राधा- रणधम के रूप में विद्यमान है। अतः इन दोनों में सादुश्य है । इस प्रकार सादुश्य में दो वस्तुएं होती हैं--भेद तथा धर्मों की साधारणता । धर्मों की साधारणता को हम अभेद कह सकते हैं । इस प्रकार सादुश्य में भेद तथा अभेद दोनों होते हैं। अभेद जिस प्रकार धर्मों के रूप में होता हैं, उस प्रकार भेद भी धर्मों के रूप में ही सम्भव है । इसका कारण यह है कि वस्तुओं की सत्ता घर्मों के रूप में होती है। अतः उनका भेद उनमें विद्यमान धर्मों के रूप में ही सम्भव है। इस प्रकार सादुश्य में कुछ धर्म साधारण होते हैं तथा कुछ घर्म अताधारण होते है । धर्मों की साधारणता से सामान्य तत्त्व बनता है तथा उनकी असाधारणता से विशेष तत्त्व बनता है। सादुश्य में सामान्य तथा विशेष ये दोनों तत्त्व होते हैं! निम्नलिखित उक्ति का यही आशय है: “'यत्र किन्खित्सामात्य कश्चिच विशेष: स विषय: सदुरप्रतयाः” सर्वस्व पृ० ४ सामान्य तत्त्व का दूसरा नाम साधम्य है तथा विशेष तत्त्व का दूसरा




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