रचना - विकाश | Rachana Vikash

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Rachana Vikash by पं. रामशंकर शुक्ल ' रसाल ' - Pt. Ramshankar Shukl ' Rasal '

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९ ) वे या तो केवल शब्दों के रूप में परिवर्तित एवं स्पष्ट हो बाहर बाते हैं या मस्तिष्क ही में मौनता के साथ प्रवाहित होते चलते रहते हैं । इस सिद्धान्त के! मान लेने से हमारे विवेचना- पथ की बहुत सी कठिनाइयों की उलभनें सुलभ कर दूर हे! जाती हैं । इससे यह बात भी पूर्णतया स्पष्ट है कि भाषा-प्रगति के दे। मुख्य रूप होते हैं--( १) मस्तिष्क सम्बन्धी क्रियाड्यो के वेग-सूचक घविचारात्मक रूप (२) तस्फ्रेरिति एवं प्रतिफल रूप वाह्मांगों की क्रियाओं या गतियों का व्यक्त रूप । या याँ कहिये कि भाषा के दे रूप प्रधान हैं :--इन दोनों में-- (१) मानसिक या झाभ्यंतरिक (शपथ) (९२) शारीरिक ( आंगिक ) या. वाहा--वही सम्बन्ध है जो मन, मस्तिष्क, शरीर तथा तदंगों में है । ये एक दूसरे के साथ झन्योन्याश्रय सम्बन्ध, एवं सहचारिता का भाव रखते हैं, दोनों एक दूसरे से प्रेरित एवं उत्पन्न होते हैं । दोनों साथ ही साथ चलते हैं। हाँ यह दो सकता तथा होता ही है कि हम एक को दबा' कर दूसरे को प्रधानता' दे दें छोर एक को प्रगट तथा झप्रगट रख दूखरे ही के प्रधानतया स्पष्ट कर । यह भी स्पष्ट है कि शब्द, उनका संयोजन एव जन्म, मनोगत स्वतंत्र विचारों की मालिका का झावश्यक विश्लेषण एवं संयोजन ट्द ( ठ021ए85 भा 50065 ) यह भी सही दे कि झमूर्त या माव-प्रघान झचित्रोपम विचार बिना किसी प्रकार की झांगिक चेछ्ाओओं के ही चलते हैं । किन्तु यह विषय भी विवाद-




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