पंचास्तिकाय संग्रह | Panchastikay Sangrah

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Book Image : पंचास्तिकाय संग्रह  - Panchastikay Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछ दिनों के पश्चात्‌ एक मुनि उनके घर पर पधारे । सेठ ने उन्हें बड़े भक्तिभाव से आहार दिया । उसीसमय उस ग्वाले ने वह झागम उन सुनि को प्रदान किया । उस दान से मुनि बड़े प्रसन्न हुए श्रौर उन्होंने उन दोनों को शझ्राशीर्वाद दिया कि यह ग्वाला सेठ के घर में उसके पुत्ररूप में जन्म लेगा । तब तक सेठ के कोई पुत्र नहीं था । मुनि के अ्राशोर्वाद के भ्रतूसार उस ग्वाले ने सेठ के घर में पुत्ररूप में जन्म लिया श्र बड़ा होने पर वह एक महान मुनि भ्ौर तत्त्वज्ञानी हुभआ्रा । उसका नाम कुन्दकुन्दाचायें था ।” इसके बाद पुर्वेविदेह जाने को कथा भी पृर्वेवत्‌ वर्शित है । इसी से मिलती-जुलती कथा झ्राराधनाकथाकोश में प्राप्त होती है । आचार्य देवसेन, जयसेन एवं भट्टारक श्रुतसागर जैसे दिग्गज झाचार्यों एवं विद्वानों के सहस्राधिक वर्ष प्राचीन उल्लेखों एवं उससे भी प्राचीन प्रचलित कथाओं की उपेक्षा सम्भव नहीं है, विवेक सम्मत भी नहीं कही जा सकती अतः उक्त उल्लेखों और कथाओं के झाधार पर यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि श्राचायें कुन्दकुन्द दिगम्बर झ्राचायें परम्परा के चूड़ामरि हैं । विगत दो हजार वर्षों में हुए दिगम्बर झ्राचार्यों, सन्तों, भ्रात्मार्थी विद्वानों एवं झराध्यात्मिक साधकों के श्रादर्श रहे हैं, मागंद्शंक रहे हैं; भगवान महावीर श्र गौतम गणधघर के समान प्रातःस्मरणीय रहे हैं, कलिकाल स्वेज्ञ के रूप में स्मरण किये जाते रहे हैं । उन्होंने इसी भव में सदेह विदेहक्षेत्र जाकर सीमंघर अ्ररहन्त परमात्मा के दर्शन किए थे, उनकी दिव्यध्वनि का साक्षात्‌ श्रवण किया था, उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त थी । तभी तो कविवर वृन्दावनदास को कहना पड़ा :- “हुए हैं, न होहिंगे; सुनिन्द कुन्दकुन्द से । विगत दो हजार वर्षों में कुन्दकुन्द जेसे प्रतिभाशाली, प्रभावशाली, पीढ़ियों तक प्रकाश विखेरनेवाले समयें श्राचायें न तो हुए ही हैं और पंचम काल के श्रन्त तक होने की संभावना भी नहीं है ।”' भगवान महावीर की उपलब्ध प्रासाणिक श्रुत्तपरम्परा में श्राचायें कुन्दकुन्द के अद्वितीय योगदान की सम्यक्‌ जानकारी के लिए पूर्वेपरम्परा का सिंहावलोकन श्रत्यन्त आवश्यक है । समयसार के झाद्य भाषाटीकाकार पण्डित जयचन्दजी छावड़ा समयसार की उत्पत्ति का सम्बन्ध बताते हुए लिखते हैं :- १ प्रवचचनसार परमागम (प्रवचनसार छन्दानुवाद ) (१७ )




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