दयानन्द ग्रन्थमाला | Dayanand Granthmala

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Dayanand Granthmala by स्वामी दयानन्द सरस्वती - Swami Dayananda Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न को विदित हो कि जो जो वातें वेदों की श्रौर उनके थनुकूल हैं उनको मैं मानता हूं, विरुद्ध बातों को नहीं । इससे जो जो मेरे बनाये सलार्थश्रकाश वा संस्कारविधि श्रादि धन्थों में छह्मसूत्र वा मजुस्यृति दि पुस्तक के वचन बहुतसे लिखे हैं वे उन यन्थों के मतों को जानने के लिये लिखे हैं । उनमें से वेदार्थ के 'ग्रचुकूल का साक्षिवत्‌ अमाण धार विरुद का प्रमाण मानता हूं । जो जो बात | वेदार्थ से निकलती हैं उन सब को अ्रमाण करता हूं । क्योंकि वेद इश्ररवाक्य होने से तर्वथा मुक को सान्य हैं । घौर जो ९ बह्माजी से लेकर जेमिंनिसुनिपर्य्यन्त महात्मा्ों के बनाये वेदार्ाबुकूल धन्य हैं, उनको सी मैं साक्षी के समान मानता हूं घौर जो सलार्थप्रकाश के पृष्ठ #२ पंक्ति १५ में “पित्रादिकों में से जो कोई जीता हो उसका तर्पण न करे श्ौर जितने मर गये हैं उनका तो श्रवश्य करे” तथा पृष्ठ 2७ पंक्ति रे? में “मरे सये प्ित्रादिकों का तर्पण धार श्रा करता है” इत्यादि तर्पण श्ौर श्राद्ध के विपय में जो छापा गया है तो लिखने घर शोधने वालों की भूल से . दप गया है । इसके स्थान में ऐसा समकना चाहिये कि जी- _ वितों की श्रद्धा से सेवा करके नित्य ठृप्त करते रहना यह पुन्नादि का परमधर्म है झौर जो जो सर गये हों उनका नहीं करना, क्योंकि न तो कोई मनुष्य मरे हुए . जीव के पा किसी पदार्थ को पहुंचा सकता. घौर न सरा हुआ जीव पुत्ादि से दिये पदार्थों को अहण कर सकता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जीते पिता भ्रादि की श्रीति से सेवा करने- का नाम तर्पण शरीर श्राय है घन्य नहीं । इस विषय में बेदसन्त्रादि का प्रमाण भूमिका के ह£ अंक के पृष्ठ ९४४ से लेके ?? 'धंक के २४७ पृष्ठ तक छपा है वहां देख लेना । श्री स्वामी दुयानन्द सरस्त्रतीजी ने ' सत्या्थत्रकाश की पुरानी हस्वलिखित प्रति को दूसरे संस्करण के लिये शुद्ध किया । परन्दु शोक है कि उसके छपने के. पहिले ही स्वरामीजी का खर्गवास हो गया ओर परोपकारिणी सभा ने उस दूसरे संस्करण को सच. १८८४ हैं० में प्रकाशित किया । स्तरामीजी के दाथ से (0 ४ कुकर बला भेद शी री ट




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