तुलसीदास और उनका युग | Tulasi Aur Unka Yug

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दे गा्पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया है और तुढ्सीके 'मानस' तथा कुछ अन्य अ्न्थोंमें संस्कृत ग्रम्थोंकी जो प्रतिच्छाया सिछती है उसकी ओर स्पष्ट रूपसे पहुले-पहल अध्येताओँका ध्यान इसीमें आछकृष्ट किया गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्लने. गोस्वामीजीकी कलाका महत्व अपने “गोस्वामी ठुल्सीदासमें उद्ाटित किया है। पहले उनकी यही आलोचना 'तुलसी-ग्रन्थावली के तृतीय खण्डमें संग्रहीत थी, किन्ठु सन्‌ १९३५ में जो संशोधित और परिवर्धित संस्करण निकला है उससे जीवनखण्ड निकाल दिया गया है और पुस्तक लेखकके दाब्दोमें-- “अपने विछुद्ध आलोचनात्सक रूपमें पाठकोंके सामने रखी जाती है /”” ग्रन्थमें प्रतिपादित विषयोंसे अवगत होता है कि इसमें काव्य सौष्रवके उद्घाटनका दही अत्यधिक प्रयास है। “तुलसीकी काव्य पद्धति'से लेकर अन्तिम शीर्षक-'हिन्द साहित्यमें गोस्वामीजीका स्थान”-पर्यन्त प्रायः सर्वत्र काव्य-सोप्रबकी ही चर्चा है । पुस्तकके पु ७५ से पृ० १६० तक जिन काव्यात्मक विशेषता ऑँंका वर्णन सिलता है उन्हें अत्यन्त संक्षेपमें यों कह सकते हैं--गोस्बासीजीकी रुचि काव्यके अतिरंजित अथवा प्रयीत स्वरूपकी ओर नहीं थी और न कुतूहलोत्पादन और मनोरज्लन ही उनका उद्द स्य था । उनकी रचि थी यथाथ चित्रणकी ओर । वे हमारे सामने कविकें अतिरिक्त उपदेष्ठाके रूपमें भी आते हैं। उन्होंने वीरगाथाकाल और प्रेमगा थाकालके बैमवसे भी अपनी काव्य-पद्धतिकों विशेष उन्नत किया है । रामकथाके मार्मिक स्थलॉकों पहचानने ओर उनकी विशद व्य्झना करनेमें उनका कवि-हृदय सदैव सजग रहा है। कथाके विभिन्न पात्रोंके चरिन्न- चित्रणमें भी उनकी प्रतिभा अप्रतिम है । बाह्म-दृश्य-चित्रणसें उन्होंने प्राचीन संदिल्ट च्वत्रण-पद्धतिका आश्रय यद्यपि कम छिया है; पर उनकै प्विचोमे असंगति, सुरुचिका अभाव, चमस्कारप्रियता, अस्वाभाविकता आदि वे अवणुण नहीं सिलते जो हिन्दी-साहित्यके अन्य छोटे-बड़े कवियों मैं पाये जाते हैं । उन्होंने अलंकाररोको भावोका उत्कर्ष दिखाने और रूप;




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