मेरा बचपन : मेरा गांव मेरा संघर्ष : मेरा कलकत्ता | Mera Bachpan ; Mera Gaon Mera Sanghars Mera Kalktta
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घणी घणी खम्मा अन्नदाता : ९
मर्यादापुर्ण था । सादगी के साथ सरलता थी। रेलवे लाइन ३० मील दर रतनगढ़
तक ही माई थी । उस जमाने में रेलवे लाइन राजपुताना में थी भी बहुत कम |
आज के लोगों के लिए पुराने राजस्थान को समझना भी कठिन होगा |
अब हुर कोने में रेलवे लाइन है। सन् १९६८ से राजस्थान में दस हजार
चार सो किलोमीटर में रेल दौड़ रही है। सरदार द्हर में सन् १९१६ में
रेलवे स्टेशन घना । सन् १९४० में बिजली आई भौर सन् १९४२ से यहाँ
चस-सेवा भी सुलभ हो गई।
लेकिन उस जमाने में यातायात के लिए छेंट, साड़नी ( ठंटनी ) या
चोड़ा होता । ंटगाड़ी था थोड़े से नागौरी वेछों की जोड़ी के रथ होते । एक
ओर भी सवारी मुझे याद है--सेठ भेरोंदान भंसाली की दो सफेद बकरों
को गाड़ी । दो सुन्दर बकरे थे और सुन्दर-सी छोटी फिटन गाड़ी थी । उसमें
चेठ कर जब उनके बच्चे वाजार में निकलते तो छोग उन्हें देखने अपनी दुकानों
से नीचे उत्तर आते । घोड़े की सवारी सबके बस की बात नहीं थी । घोड़े
पर बैठना बड़े आादमी का ही अधिकार था, उच्च पद या मर्यादा की निशानी
थी । हमारे यहाँ घोड़ा नही था, पर मुझे घोडे पर बैठने का शौक था । कुछ
जान-पहचान के परिवारों से सवारी के लिए घोड़ा माँगा जा सकता था, पर
पितामह मुझे चढ़ने न देते, चोट लगने के भय से, लेकिन में एक बार घोड़े
की सवारी कर ही बैठा । घोड़ा नाममझ सवार को खूब पहचानता है। उसने
मुझे पटक दिया और मुन्ने चोट भा गई ।
पितामह कट पर भी नहीं बैठने देते थे । जव हम दोनों भाई मेला-
समादा ऊेंड पर चढ़ कर देखना चाहते, तब वहू कहते कि हमारी बीस हजार
की हवेली कंट से ज्यादा कीमती है, उसी पर क्यों न बेठा जाए। हम बच्चे
उस समय उनके तकें के भागे झुक कर हवेली के बरामदे में बेठे-वेठे गणगीर
की सबारी देखते और मन में सस्तोप कर लेते ।
साइकिल भी काफी देर से हमारे यहाँ पहुँची । उस पर चढ़ना भी
आासान नहीं था । यह भी “नये फैशन' और सम्पन्न लोगों की चीज समझी
जाती थी । साइकिल चलाना हमें वड़ा भच्छा लगता था, पर बचपन में
साइकिल पर बैठने का मेंने कभी साहस नहीं किया । दो चार वार साइकिल
के पीछे की सीट पर जब वेठा गौर साइकिल तेज गति से दोइने लगी, तब
शक सिहरन-सी हुई, कुछ डर भी लगा, लेकिन चालक की पीठ को पकड़
कर बेठा रहा ।
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