मेरा बचपन : मेरा गांव मेरा संघर्ष : मेरा कलकत्ता | Mera Bachpan ; Mera Gaon Mera Sanghars Mera Kalktta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घणी घणी खम्मा अन्नदाता : ९ मर्यादापुर्ण था । सादगी के साथ सरलता थी। रेलवे लाइन ३० मील दर रतनगढ़ तक ही माई थी । उस जमाने में रेलवे लाइन राजपुताना में थी भी बहुत कम | आज के लोगों के लिए पुराने राजस्थान को समझना भी कठिन होगा | अब हुर कोने में रेलवे लाइन है। सन्‌ १९६८ से राजस्थान में दस हजार चार सो किलोमीटर में रेल दौड़ रही है। सरदार द्हर में सन्‌ १९१६ में रेलवे स्टेशन घना । सन्‌ १९४० में बिजली आई भौर सन्‌ १९४२ से यहाँ चस-सेवा भी सुलभ हो गई। लेकिन उस जमाने में यातायात के लिए छेंट, साड़नी ( ठंटनी ) या चोड़ा होता । ंटगाड़ी था थोड़े से नागौरी वेछों की जोड़ी के रथ होते । एक ओर भी सवारी मुझे याद है--सेठ भेरोंदान भंसाली की दो सफेद बकरों को गाड़ी । दो सुन्दर बकरे थे और सुन्दर-सी छोटी फिटन गाड़ी थी । उसमें चेठ कर जब उनके बच्चे वाजार में निकलते तो छोग उन्हें देखने अपनी दुकानों से नीचे उत्तर आते । घोड़े की सवारी सबके बस की बात नहीं थी । घोड़े पर बैठना बड़े आादमी का ही अधिकार था, उच्च पद या मर्यादा की निशानी थी । हमारे यहाँ घोड़ा नही था, पर मुझे घोडे पर बैठने का शौक था । कुछ जान-पहचान के परिवारों से सवारी के लिए घोड़ा माँगा जा सकता था, पर पितामह मुझे चढ़ने न देते, चोट लगने के भय से, लेकिन में एक बार घोड़े की सवारी कर ही बैठा । घोड़ा नाममझ सवार को खूब पहचानता है। उसने मुझे पटक दिया और मुन्ने चोट भा गई । पितामह कट पर भी नहीं बैठने देते थे । जव हम दोनों भाई मेला- समादा ऊेंड पर चढ़ कर देखना चाहते, तब वहू कहते कि हमारी बीस हजार की हवेली कंट से ज्यादा कीमती है, उसी पर क्यों न बेठा जाए। हम बच्चे उस समय उनके तकें के भागे झुक कर हवेली के बरामदे में बेठे-वेठे गणगीर की सबारी देखते और मन में सस्तोप कर लेते । साइकिल भी काफी देर से हमारे यहाँ पहुँची । उस पर चढ़ना भी आासान नहीं था । यह भी “नये फैशन' और सम्पन्न लोगों की चीज समझी जाती थी । साइकिल चलाना हमें वड़ा भच्छा लगता था, पर बचपन में साइकिल पर बैठने का मेंने कभी साहस नहीं किया । दो चार वार साइकिल के पीछे की सीट पर जब वेठा गौर साइकिल तेज गति से दोइने लगी, तब शक सिहरन-सी हुई, कुछ डर भी लगा, लेकिन चालक की पीठ को पकड़ कर बेठा रहा ।




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