श्री गोवर्धन जी शास्त्री | Shri Govardhan Ji Shastri

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Shri Govardhan Ji Shastri by चंद्रशेखर जी पाण्डेय - Chandrashekhar Ji Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ध् उ सूर्घन्य है ही । चेसे संस्कृत की प्राचीन परम्परा के पण्डित मुरारि को भवभूति से चढ़ कर मानते जान पढ़ते हैं । तथी तो वे कहते हैं *-- (१ सुरारिपद्चिन्तायां भचभूतेस्तु का कथा । (२) भवभूति सनादत्य सुसारि सुर्री कद ॥ पर भवभूति जेसी रागात्मक उद्धावना सुरारि में कहाँ; चहाँ तो शास्रीय पाण्डित्य ही विशेष है । कालिदास का पद निश्चित है, शोर उसका िसिज्ञानशाकुन्तल' समस्त काव्य ( साहित्य ) का सार-'एसेन्स”-हैं, इस वात का उद्घोप प्राचीन पण्डितों ने सुक्तकण्ठ से किया दे: काब्येयु नाटकं रस्यं तघ्र रश्य॑ घाकुस्तला । तन्नापि च चदुर्थोउड्+ तत्र न्ठोकचतुप्यम्‌ ॥ संस्कृत के इस विशाल तथा सुन्दर नाव्य साहित्य की सम्द्धि का श्रेय किसी दृद तक भारत के नाव्यशास्र जसे नाटक के सिद्धान्त-ग्रन्यों-लक्षणग्रन्यो-को भी देना होगा । स्वयं कालिदास मुनि भरत के नाटकीय सिद्धान्तों से पथप्रदशन पाते रहे होंगे । (२) अ+ अ नोब्य-चआास्त्र का सॉट् इतिहास - साहित्य में लक्षण श्रन्यों व लद््य ग्रन्थों का चोली दामन का साथ है । दोनों एक दूसरे के सहयोगी घन कर साहित्य की श्रीद्नद्धि में योग देते हैं । यथपि साहित्य के छादि विधायक_ लय ग्रन्थ; काव्यनाट्कादि ही है, किन्तु वे जहां एक शोर लक्षण भन्यों को ओत्साहित करते हैं, वहाँ उनके द्वारा नियन्त्रित भी होते हूँ । छच्य भ्रन्यों में रचयिता की उच्छुज्ललता, मनसानी को रोकने थामने के ही लिये लक्षण अझन्यों की रचना हुई । ये लक्षण प्रन्थ भी स्वयं अपने पूर्व के लच््य भ्रन्यों की विशेषताओं, उनके ्ादर्शों को मान बनाकर लिखे गये; तथा उन्हीं मानों को भावी कार्व्यों या नाटकों का निकृषोपल घोषित किया गया । चात्मीकि, व्यास श्रादि कचियों के काव्यों ने दी शामह को झलंकार-विभाजन का सागें दिखाया । श्न्यथा, रासायण, महाभारत या श्पन्य पूर्वचती कवियों की कविता के श्यभाव में भामह के लिए कविताकामिनी के इन सौन्दयं विधायक उपकरणों का पता लगाना सम्भव नहीं होता कया ? श्रस्तू,. 'पोयतिका” तथा 'हितोरिका” को तभी जन्म दे सका, जब उसके श्यागे एक ध्योर होमर के दलियड” तया 'ोर्ड्सो” एवं सोफोझीज़ के नाटक, तथा तत्कालीन श्रीक पण्डितों की भापणशेछियोँ प्रचचित थीं । इन लघयों के श्रभाव में लक्षण की स्थापना हो हो कैसे सकती थी । ठीक यही वात संस्कृत के नाव्यशात्र के विपय में कही जा सकती है हम वता चुके हैं कि संर्कत का नाव्यशाख् संस्कृत के नाटक साहित्य की समद्धि का पाक्षी है । झाज डेढ हजार वर्ष से भी ध्धिक पूर्व लिखा गया भरत का नाव्यशाद्र वात की पुष्टि करता है कि भरत के पूव ही कई शढ़ नाटक लिखे जा श्ुके हेंगि, नो काल के गत में लीन हो गये और श्ाज हमें भास ही सबसे पुराने संस्कृत नाटककार दिखाई पढ़ते हूं । कर कक




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