भारतीय दर्शन का इतिहास भाग - 5 | Bhartiy Darshan Ka Itihas Bhag - 5

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Bhartiy Darshan Ka Itihas Bhag - 5  by एस॰ एन॰ दासगुप्त - S. N. Dasagupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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० भारतीय दर्शन का इतिहुस्स किया हुमा धार के राजा मोज द्वारा प्रतिपादित उनके “तत्व प्रकाश” में शैब दर्शन भी है। हमारे पास घीर शव मह भी है जो बाद के काल मे विकसित हुए तथा उसकी चिवेचना श्रीपति पडित हारा प्रहमासुत्र की एक टीका में हैं जिन्हें साधारणतः 'सोदहसी शताब्दी का माना जाता है 1? श्रीपति, पढ़िप्त पांशुपतों, रामामुज संथा एकोराम एवं वीर शव धर्म के पांच श्राचार्यों के भी परवर्ती थे । श्ीपति भाधवाचार्य के भी परवर्ती थे। परन्तु यह श्राइचयंजनक है कि साधव, बीर- दवमत भ्थवा श्रीपति पहित के विषय में कुछ भी जानते प्रतीत नही होते हैं। बह भव्य हो बारहवी शताब्दी के बसव के उत्तरकालीन थे जो वीर शवमत के सस्थापक माने जाते है । जैसा कि हयवदनराव इगित करते हैं कि श्रीप्ति श्रीकंठ के परवर्ती थे, जिन्होंने ब्रह्मसुत्र पर एक भाष्य लिखा है ।*. हमने पृथक भाग में श्नीकठ के दर्शन की विवेचना की हैं । श्रीकठ ग्यारहवी शताब्दी मे किसी समय ब्तमान थे तथा रामानुज के श्रल्प समकालीन हो सकते हैं। श्रीकठ श्रह्मसुष् ३-३-२७-३० की श्रपनी विवेचना में रामानुज तथा निम्बाकं के विचारों की आसोचना करते हैं! शिलालेखीय श्ाघार पर हयवदनरात्र का विचार है कि श्रीकठ ११२२ ई० में बतंमान थे । * सस्कृत रचना शिव-ज्ञान-बोध के तमिल श्रतुवाद के श्रत्यघिक प्रसिद्ध लेखक मेथक देव दक्षिण श्ररकाट प्रदेश के निकट तिर्वेन्नेयल्लुर के थे । चोल राजा राज- राज तृतीय (१२१६-४८ ई०) के सौलहवे बष का एक शिलालेख है जिसमे मेयकड द्वारा स्थापित मूर्ति को भूमिदान के विषय मे लिखा है । यह परन्जोति मुनि के शिष्य मेयकन्ड देव का समय लगभग तेरहवी शताब्दी के मध्म मे निर्धारित करता है। लम्बे तकं के पस्चात्‌ हयवदनराव इस विचार पर पहुंचते है कि यदि इससे कुछ पूर्व नहीं तो २३४५ ई० के लगभग मेयकड देव वास्तव मे वर्तमान थे 1. थिलालेखों से यह निद्चित किया गया है कि ब्रह्मसुत्र के टीकाकार श्रीकठ लगभग १२७० में वर्तमान थे ।. यह सर्वधा सभव है कि मेयकड तथा श्रीकठ समकालीन थे ।. मेयकड तथा श्रीकठ का दार्शनिक अन्तर श्रत्यन्त स्पष्ट है श्रत दोनों व्यक्तियों को एक नहीं समका जा सकता 1” श्रीकठ का विचार है कि ससार भगवान की चिच्छक्ति का रूपात्तर है। यह भौतिक ससार की सृप्टि के लिए कुछ नहीं कहता है, न श्राणशवमल के १ सी० हयवदनराव कृत श्रीकर-भाष्य, साग है, प्ृ० ३१ । * वही, पृ० ३६ । है वही, पू० ४१ । रे वही, पु० इँं८ । वही, पूृ० ४६ । श्रीकठ तथा मेयकड देव की प्रशालियों की धिवेचना प्रस्तुत रचना में पृथक भागों में की गई है ।




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