इन्द्र विद्यावाचस्पति कृतित्व के आयाम | Indra Vidyavachaspati Krititv Ke Aayam

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Indra Vidyavachaspati Krititv Ke Aayam by भारतभूषण विद्यालंकार -Bharat Bhushan Vidyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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को पर्याप्त टेक्नीकल विषय प्रारम्भ करने चाहिए । तभी उनके मन मे यह इच्छा हुई कि गुरुकुल को विश्वविद्यालय की मान्यता प्राप्त हो । इससे छात्र सख्या एव अर्थ व्यवस्था दोनो मे सुधार आयेगा | इस सम्बन्ध मे वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन चेयरमैन से भी मिले थे । उनके जीवन काल मे तों गुरुकुल को विश्वविद्यालय की मान्यता न मिल सकी, पर उनकी मृत्यु के कुछ समय बाद ही उनका बोया बीज अकुरित होकर पल्लवित एव पुष्पित होने लगा । २३ जौलाई १६६० को पड़ित इन्द्र जी की गुरुकुल से विदाई की गई | उन्हे गुरुकुल से विदा होना अच्छा नहीं लग रहा था | वे आजन्म गुरुकुल की ही सेवा करते रहना चाहते थे । उन्होने अपने विदाई भाषण मे कहा भी था मैं गुरुकुल से विदाई की तो स्वप्न मे भी कल्पना नहीं करता था | मैं कहीं भी किसी भी रूप मे रहूँ गुरुकुल से पृथक्‌ नहीं हो सकता, ये मेरा प्राण तत्व है ।* इसीलिए उन्होने गुरुकुल परिसर में ही एक फूस की कुटिया बनवाई थी | वे चाहते थे कि यहीं रहकर मैं अपने लेखन कार्य को मूर्त रूप प्रदान करूँ । इस विदाई का उनके हृदय पर घातक प्रभाव पड़ा | २३ जौलाई को उनकी विदाई हुई थी और ठीक एक मास बाद २३ अगस्त को उनका देहान्त हो गया । यह भी उल्लेखनीय है कि २३ दिसम्बर को ही स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान हुआ था। २४ अगस्त को गुरुकुल में सूचना मिली कि इन्द्र जी का देहली मे देहान्त हो गया है । सम्पूर्ण गुरुकुल इस सूचना से स्तब्थ रह गया। गुरुकुल से बस व ट्रको से सारा गुरुकुल देहली पहुँच गया | उनके निवारा स्थान “इन्द्र लोक” से एक विशाल यात्रा उस महापुरुष को अपनी श्रद्धाज्जली अर्पित करने के लिए चल पडी, श्मशान भूमि मे पावन वैदिक ऋचाओ के उच्चारण के मध्य, घृत एव सुगन्धित द्रव्यो की असख्य आहुतियो के मध्य आग की लपटो के माध्यम से वह देह पंच तत्व मे विलीन हो गई | ऐसे ही लोगो के लिए उपनिषद्कार ने कह है” ते सूर्य लोके विरजा प्रयान्ति” उनके साहित्य, धर्म, राजनीति, पत्रकारिता आदि विषये को लेकर अनेक लेख लिखे गए । उनके पत्रिकाओ ने अपने विशेषाड्क निकाले और अपनी अपनी तरह से उन्हे श्रद्धाज्जलिया अर्पित कीं | जिन लोगो को उनके साझ काम करने, वार्तालाप करने या फिर देखने का सौभाग्य मिला था। वे उन पलों को सदा को चिरस्मरणीय बनाये रखने का प्रयास करते रहते हैं । ऐसे महामानव को हमारा कोटिश नमस्कार | गुरुकुल कागडी विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह के निकट आने पर उस महापुरुष को एक विन्र श्रद्धाजजलि प्रदान करने की प्रेरणा मान्य कुलपति जी द्वारा प्राप्त हुई | इन्द्र जी का गुरुकुल के अतिरिक्त एक लेखक एव पत्रकार के रूप मे बडा विशाल एव भव्य स्वरुप है। उस स्वरुप के साथ हिन्दी साहित्य मे न्याय नहीं हो सका । इसी विचार धारा को दृष्टिगत करते हुए श्री कुशलदेव शकरदेव कापसे की इस कृति को जन सामान्य के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए हार्दिक प्रसन्नता है । यह पड़ित इन्द्र विद्या वाचस्पति के ऋण से उकऋण होने का एक अत्यन्त लघु प्रयास है। संपादक भारत भूषण विद्यालंकार निदेशक श्रद्धानन्द शोध एवं प्रकाशन संस्थान गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय हरिद्वार




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