सियारामशरण गुप्त | Shiyaram Sharan Gupt
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
259
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अतुज €
सियुरामशरण की इच्छा रही है कि कुछ बालकों को लेकर उन्हे
रचनात्मक शिक्षा देने के लिए एक छोटी-सी सस्था चलायी जाय । इसके लिए
उपयुक्त स्थान की बात भी उन्होंने सोची । परन्तु उनके स्वास्थ्य ने साथ न
दिया । स्वतन्त्रता प्राप्त होने के कुछ दिन पहले यहाँ के गणेशशंकर हृदय-तीर्थ
का शिलान्यास करने के लिए क्ृपापूर्वक प० जवाहरलालजी आये थे । तब
पडितजी से भी उन्होंने कहा था कि कुछ युवकों को अपने आदर्श के अनुरूप
शिक्षित करने का समय आप निकाल सके तो बडा अच्छा हो । पड़ितजी
सुनकर मुस्करा गये । वे पहले ही बहुत व्यस्त थे । यह तो भावी पीढ़ी का
काम है कि उतका आदश अपनाकर उसकी रक्षा करे
महायुद्ध के समाचारों मे रेडियो द्वारा दोनो ओर से बमबारी का बखान
सुन-सुनकर सियारामशरण के मन मे जो प्रतिक्रिया हुई उसी का परिणाम
उनका 'उन्मुक्त' है। जिस सामूहिक हत्या के लिए दोनो पक्षो को लज्जा होनी
चाहिए थी, उसी पर वे घमण्ड करते थे । बहू भी 'विश्व-शान्ति के नाम पर ।
अपने 'नकुल' काव्य में सियारामशरण ने जो लिखा है वह भी इस प्रसंग में
स्मरणीय है .
सुझको तो विश्वास नहीं है रंचक इसमें,
देंगे कंसे अमृत बुझे स्वयमपि जो विष मे ।
बिना अभियोग-आघात किये उदात्त भावों की अभिव्यक्ति किस प्रकार
हो सकती है, “नकुल' के युधिष्ठिर में मानो इसका प्रमाण उन्होंने दिया है ।
औद्धत्य की अपेक्षा विनय में निजत्व की रक्षा कठिन होती है। “नकुल' में
मनुष्य की उदार परम्परा की अक्षयता का अपना विश्वास भी उन्होंने प्रकट
किया है। परन्तु कुबेर के सेवक का जो चित्रण उन्होंने किया है उसमें एक
स्थान पर उनसे मेरा मतभेद रहा है ।
देश में इतनी बड़ी घटना घट गयी, हम लोग परचक़ में पिसने से मुक्ति
पा गये और भारत स्वतन्त्र हो गया । परन्तु हमने उसका महत्त्व नहीं समझा ।
इससे उन्हें पीड़ा होती है कि अपना कतंव्य निभाना तो दूर, हम अपने
अधिकारी नेताओं पर उल्टा व्यग्य बिद्रप करते है । उनके मत में कठिनाइयाँ
स्वाभाविक है। आगे चलकर वे स्वयं दूर हो जाएंगी । हमारी दासता के दोष
मिटते-भिटते भिटेंगे । जो लोग स्वय कुछ नहीं करते अथवा जो अपनी ही घात
में रहते है वे ही दूसरों के द्वारा हथेली पर उगायी सरसों देखना चाहते है ।
स्वार्धी, व्यवसाथी झौर राज्य के सेवक जब ऐसी-बेसी बाते करते है तब बहुधा
वे उत्तेजित हो उठते हैं। वे बहुत विनीत है परन्तु अपनी बात कहने का
User Reviews
No Reviews | Add Yours...