मूलचार प्रदीप | Mool Char Pradeep
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
33 MB
कुल पष्ठ :
464
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about लाला राम जी शास्त्री - Lalaramji Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)_मूण्स्० झ
हि
८.
प
लव टन
एप्स रटिरलियसिपससररसफर
न ४
किलसकणरक
>> जन.
पय
दघजऊूनधऊऊजदददट-खाज जाना
लििसमसरतसतररलिलनर
2.22 22“ “-“- जन “
दप्यपप्नयन्प्द2.22:252.225254: 25252: >> >> न“ भ “४ भा अधि बा न भा
सांगर जी महाराज के भी चरण सार्तिध्य में रहकर - ज्ञान अर्जन किया था, और उनसे शास्त्रीय विपयों का विशेष
अनुभव भी प्राप्त किया था। .... _ और दो थ
चराग्य भावना और दीक्षा समारम्भ
राजस्थान के छुचावन शहर में श्री १०८ मुनि पुगव॑ वीरसागर जी महाराज ससंघ पधारे। इधर हमारे.
चरितनाग्रक जी के पूज्य पिताजी का स्वर्गवास हो जाने से वजाजी का कार्य बन्द करके श्री पं० नेमीचन्द्र जो ने पुनः
कुचावन सें जाकर धर्माश्यापकी का कार्य शुरू कर दिया था । सुणुरु भक्त पं० जी को अपने उस्थान का शुभ निसित्त
हि ० कि + है कर
मिला, और आपने उक्त मुनिराज से दूसरी प्रतिमा के ब्रत श्रहण किये पश्चात् अखण्ड ज्रह्मचय सप्तस प्रतिमा
घारण की । बस अवतों सभी घरेलू गोरख धन्धों से छुट्टी पाकर केवल एक तीथ बन्दना की ही घुनि सबार रही,
और अनेक तीर्थों की बन्दना करते हुए वि० सं० २००६ ' चेत्र कृष्णा में होने वाले श्री दि० जैन झतिशय क्षेत्र
मरसलगंज के मेले पर आप «धारे। और आपने उस समय क्षेत्र पर होने वाले “कलशा रोहण विधान” को विधि-
विधान युक्त वृहद रूप से कराया । क्षेत्र ८र पधारे हुए हजारों नर नारियों ने श्री पं० नेमीचन्द्र जी का अब ब्रद्म-
चारो जी के भेप में द्शन किया । इस अवस्था में रहते हुए भी हमारे चरित नायक जी को संतोष न हुआ, और
चल पढ़े अब पूर्ण तथा भव बन्धन को तोड़ने की ओर | वि० सं० २००७ की अपाड़ बदी पंचमी को श्री सिद्ध चेत्र
बढ़वानी पर परम पूज्य श्री १०८ आचार्य महावीरकीर्ति जी महाराज से ज्लुल्लक दीक्षा प्रंहण की । अब ब्रझ्मचारी
पं० नेमीचन्द्र जी पूज्य श्री १०४ ज्लुल्लक चूपभसागर जी बन गये । परमपूज्य, 'अठारह भाषा के ज्ञाता, निर्भीक वक्ता
सदागम पोशक, सहाविद्वान श्री १०८ आचायं महावीरकीर्ति जी महाराज जैसे महानगुरु के संघ में रहकर आपने
अनेक गुणों का संप्रह किया । पुन: श्याठ माह के पश्चात् ही शुभ मित्ती साह शुक्ला १३ वि० स० २००७ को शुभ
महूते में आपने पूज्य गुरुवय से ऐलक दीक्षा ले ली, 'औऔर दो बषे तक आप इसी अवस्था में रहकर पूर्ण इन्द्रिय
विजयी बने, एवं ज्ञान, ध्यान, शिक्षा, दीक्षा, योगादि क्रियोश्यों का विशेष अभ्यास किया ! अब आप पूज्य श्री १०४
ऐलक सुधमंतागर जी इस नाम से प्रसिद्ध हुये । दो वर्ष तक इस पद पर स्थित रहने के बाद भी बेराग्य सावना का
उत्तरोत्तर विकास ही होता गया, इधर आचायं संघ विहार करता हुआ श्री सिद्ध क्षेत्र सौनागिर जी पर
पघारा । काल लब्धि की प्रेरणा से इस महान उत्तम निमित्त को पाकर झआझापने अपने शुरु से दिगम्वरी
दीक्षां देने की. याचना. की, महामहिम आचार्य श्री ने श्पने सुयोग्य शिष्य की समुचित
आथेना को स्वीकार कर शुभ मिती फागुन शुक्ला १३ बि० सं० २००६ को शुभ महूते में तीन चार हजार भव्य
समुदाय के समक्ष निश्नन्थ दीक्षा दी, अब आपका श्री १०८ विमलसागर जी शुभ नाम रकक््खा गयां । श्रीमुत्ति
कल में ५ कर भथ न ७ ह तै कम चि ततः
चिमलसागर जी में अनेक विमल गुणों का समावेश तो था ही, अब तो विमलदर्शन, विसलज्ञान, और विसल-
र्टटटटससड'
सरिकटययिटसमिपियससि फसल सिधियरिलिधनसविधपारलपरपरिडिधनरकिमरलि/
मनऊफन
ये पी ाटटडडनटटटटटनटटडटडनटशबशसटिड लिन
टिक «3-2 ट 2 ३४३३१ अक्कल-ककनकमकनकनककसन
०
७-2०“ ५४ ४-०
॥ह81॥ |
User Reviews
No Reviews | Add Yours...