तत्त्वार्थसार | Tattvarthasaara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना १५ अमिसतमागिरे तत्त्वा्थभाष्यमं तकशास्त्रमं वरेदु वचो-- विभवदिनिलेगेसेद समंतभद्रदेवर समानेधरमोलरे ॥ ५ ॥ ई० सन्‌ १२३० में गुणवर्म कविके द्वारा कर्णाटकभाषामे विरचित पुष्पदन्तपुराणमे उल्लेख मिलता है-- वित्तरभागे सुत्रगर्तिथि मिमरे पष्णिदगन्धहस्ति तो-- मत्तरसातिरक्वे किवकोटिय कोटिविपक्षुविद्ददु-- न्मत्तगजं मद वरतु केय्येडेगोट्ट्देवल्ले पेल्वुदे मत्ते समन्तभद्रसमुनिराजवृदात्तजयप्रशस्तिय \ २२।। इस उल्लेखसे गन्धहस्तिमहाभाष्यको इलोकसख्या छयानवे हजार प्रमाण हैँ, यह जाना जाता ह । विक्रान्तकौरव नाटककी प्रशस्तिमे उसके कर्ता हृस्तिमल्ल्ने मी लिखा है- तत्तार्थसुत्रन्याख्यानगन्धहुस्तिप्रवर्तकः । स्वामीससन्तभद्रोऽभुदहेवागमनिदेशक ।। २।१ अष्टसहस्नीकी टिप्पणीमें रूघुसमन्तभद्रने भी लिखा ই इह हि खल पुरा स्वीयनिरवद्यविद्यासंयमसम्पदा गणधघरप्रत्येकवुदधश्नुतकेवलि- दश्षपुर्वाणां सुन्नकृन्महर्षीणा सहिमानमात्मसात्कुवेद्धिर्भगवस्िरुसास्वामिपादेराचार्यवर्य- रसूत्रितस्प ॒तत्त्वार्थाधिगमस्प सोक्ष्ञास्त्रस्य मन्घहस्त्याख्यं महाभाष्यभुपनिवन्धन्त. स्याद्रादविदयागुरव. भीस्वामिसमन्तमदाचार्या । यह्‌ तो रही टीकाभओको वात, परन्तु उत्त रवर्तो समस्त आचारयोनि अपने ग्रन्थोमें जहां तत्त्वनिरूपणक्रा प्रसद्धु माया है वर्ह श्री उमास्वामीको हौ शंलीको अपनाया ह । जैसे हरिवशपुराणमें उसके कर्त्ता जिनसेनस्वामीने तत्त्वनिरूपण करते हुए इसी शलीको स्वीकृत किया है । कितने ही स्थलों पर तो ऐसा जाच पडता है मानो सूत्रोका इन्होने पद्यानुवाद ही किया हो । उमास्वामीने इस नवीन शेलीको अपनाते हुए प्राचीन शैलीको सर्वथा विस्मृत नही किया हैं अपितु “सत्सख्यक्षेनस्पर्शनकालान्तरभावाल्पवहूत्त्दश्च' इस सूत्रके द्वारा उसका उल्लेख मी किया है भौर पृज्यपादस्वामीने सर्वार्थसिद्धिटीकामें विस्तारके साथ इस सूत्रकी ठीक कर सत्सख्यादि अनुयोगोपर अच्छा प्रकाश डाला है। सर्वार्थसिद्धिटीका, वोरसेनस्वामी हारा रचित धवलाटीकासे वहुत प्राचीन ह । यदि इसको अच्छी तरह समक्न लिया जावे तो घवला टोकामे प्रवेश्च करना सरन्हौ सक्ता ह । परन्तु বন कि তু বম कर इस सूत्रकी सर्वार्थसिद्धिगत टीकाकों पराठ्यक्रमसे बहिर्भूत कर दिया हैं जिससे आजका छात्र उस प्राचीन शैलेसे अपरिचित हो रह जाता हैं। पीछे चछकर इसी प्राचीन शलीको वल देनेके लिये नेमिचन्द्राचार्यने गोम्मटसार जीवकाण्ड तथा कर्म-




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