आलोचना प्रातिवाद त्रिष्णु का इतिहास | Alochana Prativad Trishnu Ka Itihas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारतीय आलोचना-पद्धति ७ इस प्रकार भारतीय श्रालोचना का द्रादश प्रकट हु है। व्यावद्दारिक श्रालोचना का क्ियात्मक रूप भी कद्दी-कद्दीं हे ढ़ने पर मिलता हैं। एक स्थान पर श्रालोचक जिस प्रकार से आलोचना करता है उसके कार्य का. पूरा सजीव चित्रण, चित्रण ही नहीं उसका श्रमिनय-सा स्पष्ट करता हुद्रा चलना है । इस सम्बन्ध में व कथन है: . उक्त च वद्यसाणं च सत्सन तियगीक्षणस्‌ । कचिद्थार्थ कथन व्याख्या तत्रस्य पदुविधाः 1 9॥। सूक्ति मुक्तावली, १०११ इसमें द्रालोचना-पद्धति की छः विधियोँ स्पष्ट की गई है, जो इस प्रकार हैं : किसी कृति का नाम ले लेना, उसके सम्बन्ध में कुछ अधिक बात कहना, निन्दा करना, तिरछे देखकर प्रशसा का भाव प्रकट करना, कुछ वास्तविक बात कहना त्रौर उसकी व्याख्या करना । इन कथनों से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ये सूक्तियों केवल उल-जलूल कथन-मात्र नही वरन_ वास्तविक झ्रालोचना की दृष्टि अपने मूल में छिपाये हुए है । इस सूव्ति-पद्धति का वलम्बन हिन्दी-साहित्य में भी बराबर मिलता है, जिनके श्रनुसार बडे-चडे कवियों तुलसी, सूर, कबीर, केशव, बिहारी आदि की विशेषताश्रो श्रौर तुननात्मक मूल्यों पर प्रकाश डाला गया है । भारतीय श्रालोचना-पड़ति के उपयुक्त सक्िप्त परिचय से हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं कि आ्राघुनिक श्रालोचना-विधियों से से बहुतो का तो उसके भीतर बीजाकुर भी नहीं मिलता, कुछ के अ्रंऊर द्राघुनिक युग मे श्राकर पल्लवित हो रहे हैं. और कुछ के रूप श्रद्ध-विकछित एवं कुछ अत्यन्त पूर्ण विकतित श्रौीर उत्कप की सीमा पर पहुँची हुई है । परन्तु यह मानना पड़ेगा कि भारतीय झ्रालोचना-पद्धति के भीतर सृबपते अधिक सम्मान सैद्धान्तिक द्रालोचना को ही मिला है । व्याख्यात्मक श्र व्यक्ति-प्रधान श्रालोचना तो स्फुट रूप मे इधर-उधर ही मिलती है, किन्तु सैद्धान्तिक द्रालोचना का धारा-प्रवाह रूप बडा ही गम्भीर श्र विस्तृत है । इस अआलोचना-पद्धति की हमारे श्राज के युग मे बड़ी उपयोगिता है । श्राज हमारे सामने जो श्रालोचना के प्रमुख विकित रूप है वे शास्त्रीय, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, व्याख्यात्मक, मावात्मक, प्रमावात्मक, मनोवैज्ञानिक श्रादि हैं । शास्त्रीय श्रालोचना के भीतर केवल काव्य-शास्त्र का ही श्राघार नहीं, वरन्‌ राजनीति श्रौर समाज-शास्त्रो का भी आधार लिया जा रहा है श्र उसके द्राघार पर समाज-शास्त्रीय ्रालोचना का भी नाम सामने झा गया है। परन्तु वद्द वर्ण्य विषय की श्रोर लदय कर सकती है, शुद्ध साहित्यिक उत्कृष्ता को लाने मे उतनी सहायक नहीं हो सकती | दम कह सकते हैं कि श्राज सैदान्तिक श्रालोचना का श्रमाव है । श्राघुनिक श्रालोचना- पड़ति के इस रूप का विकास करने के लिए श्रालोचनात्मक लेख पढ़ना उतना ्रावश्यक नहीं जितना कि कला-झतियाँ । यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना त्यावश्यक है कि एएक कला-कृति को पढ़कर ही वुद्छु विचार या 'घारणा बना लेना भी सेद्ान्तिक झ्रालोचक के लिए ठीक नहीं । कला-कृतियों के झनवरत श्रष्ययन श्रौर मनन के पश्चात्‌ सामान्य विशेषताश्रो के श्राघार पर जो निष्कर्ष निकलते हैं वे सेद्ान्तिक झ्वालोचना के द्ाघार बनते हैं । इस विपय मे मेरा निजी आग्रह तो यही है कि काव्य-झतियों के व्यापक श्और गम्मीर श्रध्ययन का कार्य जमकर चलना चाहिए, पल्लव-ग्राहिता श्र एकागी प्रभावों का विश्लेषण श्राज की हमारी श्ालोचना-पद्धति को मौलिक बनाने मे बाधा - स्वल्प ही हे ।




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