दर्शन की समस्याएँ | Darshan Ki Samasyaen
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
176
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about एलरिक वारलो शिवाजी - Elarik Varalo Shivaji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रणाली की समस्या | 9
वाक्य अथवा पदार्थ वाक्य (#दटिएंश! 5६0€00650 नहीं हो सकते । स्वतः सिद्ध
सत्यों की अवधारणा तथ्यों के वाचक-प्रावकथनों पर लायु नहीं हो सकती 17
अभय हम संक्षेप में, कुछ दार्शनिकों के सत्य के सम्बन्ध में मंतों का अध्ययन
करेंगे, ताकि जान सकें कि दार्शनिक किस प्रकार “सत्य' की व्याख्या करते हैं ।
'प्लेटो के दर्शन में सत्य
प्लेटो ने अपने दर्शन में स्पष्ट किया है कि सत्य, वस्तु स्वलक्षण (प्र्नाए्ट ऊंए
फिर) का जान है 1 प्लेटो प्रत्ययों को सत्य तथा विशेषों को आभास बताता है ।
सत् शाश्वत, श्रू.व, अनन्त, ही हो सकता है । प्लेटो ने विज्ञान को ही सत कहा है
और इस प्रकार उसके दर्शन में सत्य (70६1) और सत्ता अथवा यथार्थता (1२८०1४)
का दत है । सत्ता आभास है किन्तु प्रश्न यह है कि सत्ता, सत्य की नहीं तो किसकी
है । स्टेस ने उसकी *0पधीप65 0 धि८ पाइधणए 0 ात्द: एपाण्यण ता में
आरोप लगाते हुए लिखा है कि प्लेटो पर महान पाप करने का आरोप लगाया जा
सकता है 12
डेकार्ट के दर्शन में सत्य
डेकार्ट वुद्धिवादी दार्शनिक था । उसकी मान्यता थी कि सत् हमारी
आत्मा में निहित रहते हैं । इस प्रकार वह जन्म-जात विचारों (10986 उंत685)
के सिद्धान्त में विश्वास करता था । पूर्वाग्रहों को वह सत्य की संज्ञा नहीं
देता । चह कहता है कि “समस्त दृष्टि-सृण्टि को मैं झूठी मानता हूँ । मैं विश्वास
करता हूँ कि धोखेवाज स्मृति में आने वाली कोई वस्तु सत्य नहीं है । मैं मानता
हूँ किमेरे इन्द्रियाँ नहीं हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि वस्तु, आकार, विस्तार
गति और देश हमारे मानस की कल्पनाएँ हैं । यहाँ यह क्या है जिसे सत्य कहा
जाये ? शायद केवल यह कि निरपेक्ष रूप से कुछ सत्य नहीं है ? लेकिन इसी द्वितीय
चिन्तन के अन्त में पूछता है कि “क्या मैं वही सतु नहीं हूँ जो इस समय लगभग
सभी वस्तुओं पर सन्देह प्रकट करता हुँ ।” यही वह स्वयं सिद्ध सत्य है जो तत्व ज्ञान
का प्रारम्भ बिन्दु है । यही निरपेक्ष सत्य समस्त सत्यों की कसौटी है और इसी सत्य
को पूर्ण स्पप्टता के साथ पहुंचाना जा सकता है । सत्य की कसौटी स्पप्टता को मान-
कर डेकार्ट के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करे
.. दार्शनिक त्लैमासिक वर्ष--4 अक्टूबर 1958 अंक--र4, पृ० 54
2. 00. प0६५ 0 ५6 सांडाणए 0 (८७ एाा०50फूपक-नका.ध, 5806,
० 247. कट 8150 पाइचात्य दर्शन का इतिहास-जगदीश प्रसाद अवस्थी
पु 43
User Reviews
No Reviews | Add Yours...