समकालीन पाश्चात्य दर्शन | Samakalin Pashchaty Darshan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
283
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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विड्गिस्टाईन का यह प्रतिपादन एक विचित्र विरोधाभास से पूण है... यह एक तत्व-
मीमासात्मफ़ सिद्धात था, वंयोकि यह विश्व के ज्ञान के स्वरूप की, भ्रोर विष्व के साथ भग्पा
के सम्बंध वी कत्पना पर प्रतिष्ठित था । इस बिरोधाभास का समाधान यही हो सकता है
कि तत्त्वमीमासा सत्य है, कि तु तत्वमीमासात्मक कथन सम्भव नहीं हैं । ताफ़िफ प्रत्यक्षवादियों
ने ट्रवटेटस के इस सम्पूण सिद्धात को, इसकी तत्वमीमासा का परित्यांग करते हुए, श्रपना
लिया । तत्त्वमीमामा का प्रत्यासपान उनका मुख्य लक्ष्य था जो इस ''मवाच्यता”' श्रोर
“निरथकता” से बहुत बढ़िया सिद्ध होता था । सो, उन्होंने यह कहने के बजाय कि “भाषा
तथ्य का चिश्नण है, भ्रौर तथ्प का यह स्वरूप है भरत भाषा का यह स्वरूप है' यह कहां कि
' वावय का झथ उसकी प्रमाणीकरणीयता मे होता है”, ग्रौर प्रमाणीकरण का पक विध्िप्ट
सिद्धात दिया । इस सिद्धात के भ्रनुसार, भाषा के सुल वावय प्रत्यक्षात्मक प्रकार के वावप
होते हैं थीर भ्रत्प्र सब वाक्य इन मूल वानयों के ताकिक प्रकाथ (लाजीकल फरणस्) हैं । धस
प्रकार उनके भ्तुसार 'भ्र लाल है”, “अर के भ्राकार का है', “प्र लाल तथा क श्राकार का है'
श्रादि प्रकार के वाबय ही साथक हो सकते हैं । किन्तु यह इसलिये नहीं कि ये किसी प्रकार
के तथ्यों के चित्र हैं, वत्कि इसलिये वयोकि यह हमारे प्रत्यक्षो के विवरण हैं ।
कि तु किस प्रकार के विवरण प्रत्यक्ष के विवरण हैं * विट्गिस्टाईन ने इस सम्ब घ
में भ्पने श्रमिमत का कोई सकेत नहीं दिया था, उसने केवल धघ्राकारिक स्थिति का प्र तिपादन
ही किया था, कितु रसल, भौर मूर भी, इस सम्बन्ध से हपष्ट थे, वे सवेद-प्रदत्तो को
प्रस्यक्षात्मक वावयों क्रा विपय मानते थे । कितु ताक प्रत्यक्षवादियों में इस प्रदन को लेकर
मतभेद था, कु इन्हें सवेद प्रदत्तो की सूचनाएं मानते थ जबकि श्रय सावजनिक भौतिक
घटनामों की सूचनाएं मानते थे । इसी प्रकार कुछ इन्हें भप्रमाखीय मानते थे भौर कुछ
प्रामाण्य भ्रप्रामाण्य की सम्भावना से परे मानते थे । किन्तु सब इस वात में सहमत थे कि इन
वाकयों की तथ्यात्मक भ्रन्तवस्तु इन प्रत्यक्षमूलक श्रनभवा से ही उपलब्ध होती है भ्रीर यह
भन्तवस्तू ही इनको अथ प्रदान करती है । यही श्रमाणीकरण सिद्धात था, जिसके भ्रनुसार
“किसी प्रतिज्ञा का अथ उसके प्रमाणीकरण की विधि है ।”
किततु यदि वाक्य का श्रथ उसके प्रमाणीकरण की विधि है भौर प्रमाणी करण ऐन्द्रिय
प्रस्यक्षों से उपलब्ध होता है तब भय श्ौर प्रमाण दोनों व्यक्तिगत हो जायगे । क्योकि क के
प्रत्यक्ष की भ्रन्तवस्तु ख के प्रत्यक्ष की अन्तवस्तु नहीं हो सकती, न क श्रौर ख परस्पर इनको
तुलना कर सकते हैं, वास्तव मेक ख के लिये भौर ख के के लिये एक ऐद्रिप विपय मार
है। इस कारण ताकिक प्रत्यक्षवाद के सम्मुख ब्यक्ति-केन्द्रितता (सोलिप्सिकम) की समस्या
चसन्त हुई । कानप ने १६२५ मे “ लोजीकन स्ट्रवचर श्रॉफ दि यत्ड ' में सम्पूर्ण भनुभविक
वैज्ञानिक प्वधारणाम्रों का ताना दाना व्यक्ति के द्रत झाधार पर पुनारचित करने का प्रयन्न
किया । पीछे उसने भ्रनुभव किया कि यह प्रयत्न सफल नहीं हो सकता,
दे य भर परिणामत उसने
शून चावर्यों के वाच्यो के रूप में व्यक्तिगत सवेदों या प्रनुभवो का परि
रत्याग कर मूल वाकयों
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