पिछड़ी जतियों की भूमिका | Pichhadi Jatiyon Ki Bhumika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
314
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्थिति निर्धारित कर दी जाती है जिसके कारण लोग विभिन्न वर्गों मे बट जाते
है-जिनमे समान स्थिति वाले कार्यों के आधार पर सामाजिक व्यवस्था का निर्धारण होता
है। भारतीय सामाजिक सगठन की यह मौलिक एव विचितन्न विशेषता है कि इसमे
सस्तरण के निर्धारण मे आर्थिक एव जातिगत तत्वो की शिक्षा से अधिक महत्व प्राप्त
होता है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो ससार मे कही अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है|
यह अपनी तरह की विचित्र सस्था है। भारतीय समाज मे इस व्यवस्था की जडे इतनी
गहरी हैं कि इसने भारतीय मुसलमानों इसाइयो तथा अन्य धर्मों के लोगो को भी
प्रभावित किया है। प्रारम्भ मे यह इतनी जटिल नहीं थी जितनी कि आज है। कालान्तर
मे जातियो और उपजातियो की सख्या मे वृद्धि के कारण यह और भी जटिल होती
गयी।' प्रत्येक सामाजिक स्तर मे निषेध प्रतिबन्ध कठोरता एव जटिलताए होती है।
कालक्रम से उभरने वाली विभिन्न प्रवृत्तियो ने जाति व्यवस्था को अत्यत विस्तृत किया।
परिणामत भारतीय समाज अनगिनत जातियों मे बट गया। जाति व्यवस्था से व्यक्ति का
सम्पूर्ण जीवन क्रम बध जाता है। उसकी शिक्षा विवाह खान-पान पारस्परिक सम्बन्ध
व्यवसाय इत्यादि जातीय योगदान से ही प्रवर्तित एव स्थिर होती है।'
जाति व्यवस्था का स्वरूप
जाति एक ऐसी सस्था है जिसकी उत्पत्ति बडी जटिल है और वह भी इतनी
जटिल कि इसे क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रखना होगा अर्थात इसका सामान्यीकरण
करके इसे सम्पूर्ण भारत के सन्दर्भ मे परिभाषित नहीं किया जा सकता। यद्यपि कि ऐसी
सामाजिक सस्थाये अन्यत्र भी मिलती है जिनका कोई न कोई जाति से मिलता-जुलता
है और कुद सस्थाये तो ऐसी भी है जिनकी उत्पत्ति का सम्बन्ध जाति से है। तथापि
जाति अपने सम्पूर्ण अर्थों मे अर्थात जाति को हम जिस रूंप मे भारत मे देखते हैं वह
भारत की अपनी वस्तु है। भारत मे जाति व्यवस्था जितनी जटिल सुव्यवस्थित और दृढ़
1 हिरेन्द्र प्रताप सिह-भारतीय सामाजिक संस्थाये मिश्रा ट्रेडिंग कार्पोरेशन वाराणसी वर्षा- 1999 पृष्ठ-- 93 ||
2 ओकार नाथ द्विवेदी - भारतीय संस्कृति एव सभ्यता इलाहाबाद वर्ष 1991 पृष्ठ 131
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