योगविचार भाग 1 | Yogvichar Bhag-1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
212
श्रेणी :
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डॉ० इन्द्रसेन -Dr. Indrasen
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श्री अरविन्द - Shri Arvind
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जीवन और योग
को यहा प्रकाशित करना चाहते हैं, यदि यह भारतीय उक्ति सत्य है
कि शरीर एक यत्र है जो हमारी प्रकृति के यथार्थ नियम को चरितायथें
करने के लिये हमें दिया गया है, तो भौतिक जीवन से किसी भी प्रकार
की अतिम निवृत्ति अवश्यमेव दिव्य ज्ञान की पूर्णता से पराडममुखता
ही होगी और पार्थिव अभिव्यक्तिकरण में निहित उसके उद्देश्य का
निराकरण रूप होगी। इस प्रकार का निराकरण कुछ व्यक्तियों के
लिये, उनके विकास के किसी गुह्म नियम के कारण, यथा वृत्ति रूप
हो सकता है कितु वह॒मनुष्यजाति के लिये अभिप्रेत लक्ष्य कदापि
नहीं हो सकता । अत जो योग शरीर की अवज्ञा करता अथवा उसके
विलोप या उसके निराकरण को पूर्ण आध्यात्मिकता के लिये अपरि-
हार्य वना डालता है वह कोई सर्वांगपूर्ण योग नहीं हो सकता वरच,
शरीर को भी पूर्ण वनाना आत्मा की अन्तिम विजय होनी चाहिये
और शारीरिक जीवन को भी दिव्य बनाना, अवद्य ही विद्व में,
ईदवर की अपने कार्य पर अतिम छाप होनी चाहिये । अधिभूत अध्यात्म
के सम्मुख जो वाघा उपस्थित करता है वह अधिभूत के निराकरण
की कोई युक्ति नही है , क्योकि वस्तुओ के अदुष्ट “विधान' में हमारी
वडी से बडी कठिनाइया भी हमारे अच्छे से अच्छे सुयोग होते है। वहुत
वडी कर्ठिनाई, जीती जाने वाली परम विजय का और हल होने वाली
अन्तिम समस्या का प्रकृतिकृत सकते होता है ; वह किसी ऐसे दुर्मेथ्य
पादश की चेतावनी नही होती जिससे हमें वचना हैं, न ही किसी ऐसे शत्रु
की चेतावनी होती है जो हमारे मुकाबले में बहुत जवर्दस्त है और जिस
के सामने से हमें अवदय ही भाग जाना चाहिये अगर झारी-
रिक जीवन वह जीवन है जिसे कि प्रकृति ने अपने आधार और प्रथम
उपकरण के तौर पर हमारे लिये दृढतया विकसित किया है, तो वैसे
ही अब वह हमारे मानसिक जीवन को अपने एकदम अगले लक्ष्य और
उत्कृष्टतर करण के रूप में विकसित कर रही है।
1
हर
रस
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