Sahas Aur Khoj Ki Kahaniyan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कोलम्बस श्श्‌ उठा--'प्रथ्वी, प्रथ्वी' । मल्लाहों के मुख पर हुपे की रेखा दौड़ गई । सच मल्लाद नत-मस्तक होकर इश्वर का धन्यवाद करने लगे । दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही कोहरे के साथ-साथ पिंजन का चष्रि-्रम भी नष्ट हो गया । इधर-उधर देखने पर कहीं स्थल का पता नहीं चलता था । अबकी चार दुःख तथा असंतोष की सीसा और भी चढ़ गई । जब चारों 'झोर दृष्टि दोड़ाते थे तो ऐसा प्रतीत होता था कि न कहीं द्वीप है और न कहीं प्रथ्वी, न सोना है और न मोती । उनकी जगदद सामने मौत ही दिखाई दें रही थी । अब सबने निश्चय कर लिया कि हम सच केचल भ्रम में पड़े हुए हैं, अपने निर्दिप्ट उद्देश्य पर पहुंचना अत्यन्त कठिन है । हमारी प्राणाहुति अवश्य दी जायगी । इस प्रकार के विचार-श्रमावतें में वे चक्कर लगाने लगे । कपटी, नीच, देशारि कोलम्बस ! तूने यह क्‍या किया ? तुम किस जन्म की शत्रुता निकालना चाहते हो ? हमने तुम्हारा क्या अपराध किया था जिसका तुम यह घोर दण्ड देना चाहते हो ? इस प्रकार फेवल बड़बड़ाते ही न थे, प्रत्युत कोलम्बस का सिर काटने पर उतारू हो रहे थे । नीतिनिपुण तथा कालाभिज्ञ होने के कारण : कोलम्बस ने किसी को शान्ति से, किसी को दमन से तथा कइयों को भरसंना से शान्त किया । अपने साथियों से प्राथना की कि कृपा करके मुझे तीन दिन का अवसर और दो । यदि इतने समय में हम किसी तट तक न पहुंच सके तो तुम जो




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