कृष्णभक्ति - काव्य में सखीभाव | Krishn Bhakti-kavya Men Sakhibhav

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Krishn Bhakti-kavya Men Sakhibhav by शरणबिहारी गोस्वामी - Sharan Bihari Goswami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भुमिव्का न्रज़ के कृष्णभक्ति-सम्प्रदायों की उपासना-पद्धति का मूलाधार 'रस' है, जिसे श्रजरस, उज्ज्यल रस; रसोवासना आदि शब्दों से ठ्यबद्त किया जाता है । दार्शनिक शब्दावली में इस रस-दर्शन के विधायक तत्त्त्र भी अन्य दर्शनों से प्रथक्‌ 'प्रेम तत्व' पर आश्रित हैं । ग्रजभक्ति के प्रव्तक महानुभावों का ध्यान दार्शनिक दृष्टि से वेदान्त के व्याख्यान पर न होकर उसके तात्तिक ऐक्य पर केन्द्रित था, इसलिए दर्शन की जटिलता से बच कर इनका ध्यान मुख्यतः प्रेम और प्रपत्ति पर ही रहा । यही कारण है. कि साम्प्रदायिक धरातल पर प्रथक्‌ होने पर भी 'राघाकृष्ण' के उपासना-सूत्र द्वारा त्रज के भक्ति-सम्प्रदाय एक सूत्र में अनुस्यूत लगते हैं । ब्रजभक्ति के उन्नायकों में महाप्रभु कृष्ण चैतन्य, बल्लभाचाय; निम्बाकोचाये; स्वामी हरिदास और गो० हितहरिवंश का विशिष्ट स्थान है । इनमें महाप्रमु कृष्ण चेतन्य के अतिरिक्त सभी आचार्यों का त्रज- भूमिवास निश्चित है । बल्लभाचार्य भी गोवधन में कुछ समय तक रहे थे और वहां रहकर उन्होंने लीलागान की परम्परा स्थापित की थी | निम्बाकौचाये का समय अनिर्णीत होने पर भी यह निर्णीत है कि दाक्षिणात्य होने पर भी उनका अधिक समय ब्रज में ही व्यतीत हुआ था! स्वामी हदरिदास ओर हितहरिवंश तो अपनी युवावस्था में ही वृन्दावन घाम में आ गये थे और आजीवन यहीं रहे । फलतः इन सभी महात्माओं की भक्ति-पद्धति में ज्जरस की प्रधानता बनी रही और इसी को उन्होंने अपनी भक्ति का मेरुदण्ड बनाया | प्रेमलक्षणा भक्ति या रसोपासना के मूल बीज का संघान करने बाले विद्वान उसे बेदिक वाड्यय से खोजने का प्रयन्न करते हैं किन्तु




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