मैं कहता आँखन देखी | Mai Kahta Aakhan Dekhi

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आचार्य श्री रजनीश ( ओशो ) - Acharya Shri Rajneesh (OSHO)

ओशो (मूल नाम रजनीश) (जन्मतः चंद्र मोहन जैन, ११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०), जिन्हें क्रमशः भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश, या केवल रजनीश के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता-नेता थे। अपने संपूर्ण जीवनकाल में आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। वे धार्मिक रूढ़िवादिता के बहुत कठोर आलोचक थे, जिसकी वजह से वह बहुत ही जल्दी विवादित हो गए और ताउम्र विवादित ही रहे। १९६० के दशक में उन्होंने पूरे भारत में एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में यात्रा की और वे समाजवाद, महात्मा गाँधी, और हिंदू धार्मिक रूढ़िवाद के प्रखर आलो

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अऔर सोचा-समझा हो । झब यह बड़े मजे की बात है कि कृष्स की गीता पढ़ते चकत मैं उसे उठाकर रख देता हूँ, लेकिन ताधरण-सी कोई किताब पढ़ता हूँ तो झाधोपान्त पढ़ जाता हूँ, क्योंकि वह मेरा ध्नुभव नटी है । बहू बडी कठिन बात हैं। एक बिलकुल साधारण-सरी किताब मैं पूरी पढ़ता हूँ शुरू से धाखीर तक । उस पर मैं रुक नहीं सकता क्योंकि वह मेरा झनुभव नही है । लेकिन कृष्ण की किताब उठाता हूँ तो दो-चार पंक्तियाँ पढ़कर रख देखा हूं कि बात ठीक है । उसमें भागे मेरे लिए कुछ खुलेगा, ऐसा मुझे नहीं मालूम पड़ता । यदि मुझे कोई जासूसी उपन्यास पकड़ा जाय तो मैं पूरा पढ़ता हूं ; क्योंकि मुझे सदा उसमें भागे खुलने के लिए बचता है। लेकिन कृष्ण की गीता मुझे ऐसी लगती है जैसे मैंने ही लिखी हो । इसलिए ढीक है, जो लिखा होगा वह मुझे पता है । बह बिना पढ़े पता है । इसलिए जब गीता पर बोल रहा हूँ तो मैं गीता पर नहीं बोलता । गीता सिर्फ बहाना है । शुरुभ्रात गीता से होती है, बोल तो मैं वही रहा हूँ, जो मुझे बोलना हैं, जो मैं बोलता हूँ, बोल सकता हें, बही बोल रहा हूँ । श्ौर भ्मर झापकों लगता है कि इतनी गहरी व्याख्या हो गयी, तो इसलिए नहीं कि मैं कृष्ण से प्रभावित हूँ, बल्कि इसलिए कि कृष्ण ने वही कहा है जो मैं कहता हूँ । मैं जो कहूँ रहा हूँ वह व्याख्या नहीं है गीता की । तिलक ने जो कहा है वह व्याख्या है, गाँधी ने जो कहा है वह व्याख्या है। वे प्रभावित लोग हैं । मैं जो गीता में कह रहा हूं वह गीता से कुछ कह ही नहीं रहा हूँ । गीता हिस स्थर को छेड़ देती है वह मेरे भीतर भी एक स्वर छेड़ जाता है। फिर तो मैं क्षपने सुर को पकड़ लेता हूँ। मैं पनी ही व्याख्या कर रह; हूँ, बहाना गीता का होता है । तो कृष्ण पर बोलते-बोलते कब मैं झ्रपने पर बोलने लगता हूँ इसका श्रापकों ठीक-ठीक पता उसी क्षण चलेगा जब झापकों लगे कि मैं कृष्ण पर बहुत गहरा बोल रहा हूं । तब मैं झपने पर ही बोल रहा हूँ । महावीर के साथ भी वही है, क्राइस्ट के साथ भी वही है, बुद्ध धौर लाभोत्से के साथ भौर मुहम्मद के साथ भी वही है । क्योंकि मेरे लिए ये सिर्फ नाम के फर्क है। मेरे लिए जो मिट्टी के दिये में फर्क होता है वह फककं है, लेकिन जो ज्योति जलती है, वह एक है। वह मुहम्मद के दिये में जल रही है, कि महावीर के दिये में, कि बुद्ध के दिये में, उससे मुझे कोई प्रयोजन तहीं है । कई बार मैं मुहम्मद, महावीर भौर बुद्ध के खिलाफ भी बोलता हूँ, तब भौर जटिलता हो जाती है कि पन्न में इतना गहरा बोलता हूँ, फिर खिलाफ बोल देता हूँ। जब भी खिलाफ बोलता हूँ तब मेरा खिलाफ बोलने का कारण यही होता है कि भ्रगर कोई भी व्यक्ति दिये पर बहुत जोर देता हैं तो मैं खिलाफ बोलता हूँ । जब भी मैं प्रक्ष में बोलता हूँ, तब ज्योति पर मेरा जोर होता है; धौर जब भी मैं खिलाफ बोलता हूँ, तब दिये पर मेरा दर




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