मराठे और अंगरेज | Marathe Aur Angrej
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about नरसिह चिन्तामणि केलकर - Narsingh Chintamani Kelkar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अजद्धरेजा के पहले का महाराष्ट्र श्४
सादि बातो का असर मराठा पर पडा हो, इसमें छुछ आश्चय नहीं है । यदि महाराष्ट्र
के पहाड़ी किलो को ही देखा जाय, तो उनमे से एक आय किले के मस्तक पर खडे
होकर चारो ओर नजर फेकगे बाल का यहू भान हुए बिना नहीं रहेगा कि जिनके
अधिकार में थे सिले थ वे यदि जगद् को तुर्य सममते रहे हो तो वोई ब्गश्चय नहीं ।
जबकि पत्लेदार तोपी का अविष्कार नहीं हुआ था और उनके द्वारा कोस आधा कोस
को दूरी पर से किले को तटब दी धराशायी नहीं की जा सकती थी, तव तक ये किले
सतत्रता निधि के सरक्षण के लिए मजबूत फौलादी सन्दूको के समान थे । इन
किला के आश्रय मे रहने वाले लोग, साहसी यपल और कप्ट सहिप्णु होते थे, अत
उहें दूसरों के आश्रम मे पराधीन होकर रहना सड्ूट रुप प्रतीत होता था । श्रत्येक
महाराष्ट्र निवासी, गुसलमानी के आने वे पहले से चली आई हुई पद्धति के अनुसार
अपनी पूवजोपाजित मौहसी जमीन में लेती करता था. और उसे रूखा सूखा जो कुछ
मिलता उसी म सन्नुप्ट रहकर अपने स्वाभिमान की रक्षा करता था । यही कारण है
जो महाराष्ट्र की पचास-पाठ हजार वर्गमील भूमि का पट्टा मुसतमान पूर्णतया कभी
अधिडत न कर सके । मराठों की -पक्तिगत स्वातन््य-प्रियता यद्यपि प्राम्य सस्या के
आड़े कभी नहीं आती थी तथापि एक छप्र शासन से उदह् घृणा होने के कारण उन
पर ऐसा शासन विशेषकर परकीयों का -कभी भी बहुत दिनो तक न टिक सका ।
जब कोई शत्रु उन पर चढ़कर आता था तब वे कुछ काल तर एक हो जाते थे परन्तु
शान्ति के समय में अपनी स्वातन्त्य प्रियता के कारण परस्पर कलह किया करते थे ।
यह इतिहास-प्रसिद्ध बात है कि मराठी ने परकीय सीधियन लोगो को दो थार पराजित
कर भगाया था । परन्तु चानुवय, गुप्त शिलाहार और यादवां ने अनेक थार परस्पर
रख संग्राम किये । मराठा में अकेले रहने बौर दूसरा ते भगडे करने का स्वभाव अत्यधिक
है, परन्तु है वह स्वातनय प्रियता के कारण । उत्तर भारत में वारहवी शताल्ति से ही
मुसलमानी शासन थोडा वहुत्त शुरू हो गया था. परन्तु दसिण में आने के लिए उसे दो
दाई सौ वर्षों का समय लग गया और फिर भी वह अधिक समय तक न टिक सका
और उस पर भी मालवा प्रात तथा सह्यादि पवतमाता के ऊपर के प्रदेश मे तो सुसल
मानों को कभी स्यान ही नहीं मिला । इतना ही नहीं दिल्ली की वादशाहत के कमजोर
होते ही मावते मराठों ने उस बादशाहत रूपी भव्य भवन के पत्थरों को एक के बाद एक
निकालना प्रारम्म कर निया और अत में उन्होंने त्ल्ली तथा दिल्ली की बादशाही को
हस्तगत कर ५० वर्षो के लगमग साम्राज्य सत्ता के सुख का अगुभव किया । ययपि यह
ठीक है कि वे अपनी महत्वाकासा के अनुसार दिल्ली में हिन्दू साश्ाज्य स्थापित्त ने कर
सके तो भी जब अद्धरेन सोग अपनी साम्राज्य सत्ता स्थापित करने लगे तब उनके
काम म मराठो वी ही आर से वास्तविक रोक टोक हुई । एलफिन्स्टन, सर विलिंधम
हण्टर, सर अनफ्रे” लायल भादि अद्धरेज इतिहाहकारो ने मुक्तकष्ठ से स्वीकार किया
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