दैवी - संपद | Daivi Sampad

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Daivi Sampad by रामगोपाल मोहता - Ramgopal Mohta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एलकरं।,. लिन लि देवी सम्पद्‌ चाक्तियाँ अपने सूदम-माव सें,;सूद्म (ना घदेविक) जगत रूप होकर रहती छ। और वही सूबम शक्तियाँ जब घनीभूत होकर स्थूलू भाव घारण करती हैं तो मोतिक--जगत्‌ रूप बन जाती हैं; अतः सब श्रकार से एकत्व ही सच्चा है ) जैसे जर-तस्व सूक्ष्म अवस्था में भमाफःरूप होता है, तरक अवस्था 5 पानो-रूप रहता है और जन स्थूलनरूप घारण करता है तो बह बफ बन जाता है; परन्तु सब अवस्थाओं में है वह एक जरूतत्व ही; जरू से सिल्न कछ नहीं है; इसी तरह सूदम आधिदेविक ओर स्थूलू आधिभोतिक जगत्‌ सब एक आत्मा ही के अनेक रूप हैं । इससे जो मन्नता प्रतात होती है वह कब्पित माया है, जो प्रति क्षण बदछती रहती है। अतः जब अनेकता झूठी है तो इससे उत्पन्न होने वाले बन्घन अर्थात पराघीनता थीं वस्तुवः झूडी है और एकता सच्चो होने से इसका स्वाबाविक गुण स्वतः न्त्रता भी सच्ची है इसलिए अनेकता के आम से जो बन्घन प्रतोत होते हैं वे झूठे और अस्वाभाविक होने के कारण सबको आपरिय एवं दुखदायक प्रतीत होते हैं गौर एकता-रूपी स्वध्वीनता अथवा सुक्ति सच्चा और माबिक होने से सबके प्रिय एवं सुखदायक प्रतीत होतो है । इसीलिए अनेकता के बन्धनों से छुटकारा पाने आर एकता रूपा उक्त श्रात करने के लिए सब कोई बेचेन रहते हैं । एकता रूपी देवी सम्पदू को त्याग कर लोगों ने स्वयं अपने लिए बन्धन उत्पन्न कर लिए परन्तु छोगों ने अपनी ही मूखत! से अपनी--वास्ताविक एकतारूपा >- स्वाभाविक स्वतन्त्रता अर्थात्‌ सर्वभतात्सेक्थ साम्यभाव की देवी श्रकृति को भुखा दिया और जगत्‌ के नानात्व अर्थात्‌ अनेक नाम और अनेक रूपों के बवाव. को सच्चा और अपने आप को दूसरों से प्रथझू मानकर भोतिक शरीरों में अपने. व्यक्तित्व का जहड्ार-कर लिया एवं दूसरों से अपने पथक व्याक्तात स्वाथ कषिएत करके उनमें आसक्ति के बन्घन उत्पन्न कर छिए क्योकि जब अपने




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