आदिम रात्रि की महक | Aadim Ratri Ki Mahak

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Aadim Ratri Ki Mahak by फणीश्वरनाथ रेणु - Phaniswarnath Renu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विघटन के केश ::. है४ 'रामफल की बीवी ने बीच में ही वठा को माँ को काट दिया, “'झरजुन मिसर भ्रीर गेंदा भा को वात कहती हो मौसी * तो पूछनी हूँ कि गौव में वे दोनो करते ही क्या थे ? “विल्लल्ला” होकर इसके दरवाजे से उसके दरवाजे पर खनी 'चुनियाते' ग्रौर दाँत निपोडकर भीख मांगते दित कांटे थे । अ्रव घहर में जाकर 'होटिल' में भात राँधते हैं दोनो । पिछले महीने श्ररजुन मिसर ग्राया था । भ्रव बदुझा में पनडब्वा और सुर्ती रखता है। तोद निकल गया है।” ग्तो तू भी रामफल को क्यो नहीं भेज देती ? तोद निकल जायगा ।”* किसी ने कहा, “'एहू ! सभी जाकर बाहर में 'रिश्कायाडी ' सी चते हैं । है भगवान ! ग्रघेर है।”” जशब मिला, “क्यों ? रिक्शा सी चना बहुत बुरा काम है, क्या * पाँच रपये रोज की कमाई यहाँ किस काम में होगी, भला ? सभी ने देखा, कंवर्त टोली का सच्चिदा, जो पाँच पैसे का कपूर लेंने आया था, पूछ रहा है, “बताइये ?”” किसी ने कोई जवाब नहीं दिया । सच्चिदा घला गया तो चुरमुनियाँ ने भोठ विदकाकर बहा, “इसके फड़फडा रहे हैं। “ई भी किसी दित उडेगा । फुर-र 1” १ बहुत देर से रुकी हंसी छलक पढ़ी । लोग बटुत देर तक उसकी वात पर हृसते रहे । चुरमुनियाँ वी दादी पुकारने लगी, परी थो चुरमुनियाँ 1” रात में चुरमुनियाँ बडघरिया-हदेली में ही सोती है, गंगापुरवाली दादी के साथ । दादी सुवह-शाम चाय पीती है भौर चुरमुनियाँ को घाय की भादत पढ़ गई है। भाज रविवार है। झान रात में दी बार चाय पियेगी, गगापुरवाली दादी । सेकिन झाज चाय पीने का जी नहीं होता । चुरमुनियाँ चुरचाप झपनी कबरी में सिमट-सिकुडकर भ्रंगीठटी पर चढी केतली में पानी थी *गनगनाहट' सुन रही हैं । दादी ने दिल्ली के सुर में पूछा, “घाज तुम किसका 'विरह-बिजोग सता रहा है जो इस तरह “7 7 ,* १




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