रत्नकरण्ड - गौरव | Ratnakarand - Gaurav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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,(उं भी कार्य किया जायगा वह सांसारिक ख्याति, लाभ, पूजा . एवं इन्द्रिय विपयों की पुषि के लक्ष्य से ही किया जायगा । अस्तु,. वर्तमान युग में देश भौर समाज के समक्ष सबसे वड़ी समस्या नैतिक मूंत्यों के तीव्र गठि से ह्लास की है । जिसके परिणाम स्वरूप मानव दानवत्ता की ओर अप्र- सर होता चल़ा जा रहा है । ऐसी दशा में इस ग्रत्य में प्रतिपादित विपय मनुष्य को पतन के गहन गब्हर से निका कर न केवल नैतिकता के धरातल पर ला सकता है, अपितु उसे मात्मिक सुख दांति प्रदान करते हुए चन्नति के चरम शिखर पर पहुंचाकर आत्मा से परमात्मा चना देने का मारे भी प्रशस्त करता है, जिसकी आज से लगमग दो हजार वर्ष पुरवे पुि करके 'पंरम पुज्य स्वामी समस्तमद्र ने मानव समाज का: अंसीम उपकार किया है । थदि इस प्रंथ में श्रतिपादित घामिक श्रद्धा, ज्ञान एवं सदाचार के नियमों काः मानव समाज स्व पर हित मैं दुढ़ता पूवंक पालन करने का संकल्प करले तो संसार में प्राय: सर्वे होने वाले अन्याय, अत्याचार अनाचाएर, व्यभिचार, हिंसा,झुठ, लूट खसोट आदि दुप्कर्मों एवं पाखंडों का अन्त होंकर सुख-शांति के प्रतिष्ठित होने में तनिकः मी देर न लगे - जिसके लिये मानव सदा से लालायित रहा है । अतएव इस ग्रंय की महत्ता एवं उपादेयता भी स्वयं सिंद्ध है 1 ' प्रस्तुत रचना, व प्रंथ की अन्य टीकाएँ:- इसकी हिन्दी भाषा में अनेक टीकाएं . समुपलब्ध हैं - जिनमें जयपुर निवासी स्वर्गीय श्री पं. सदासुखदासजी द्वारा रचित ठीका विस्तृत भौर सर्वोपरि है । विद्यायियों के लिये अन्वयाथथ सहित अन्य विद्वानों ने मी टीकाए की ही हैं, जिनसे समाज लाभान्वित होता रहा हैँ । इनके सिवाय श्री पं: गिरघर दार्मा द्वारा रचित हिन्दी में इसका पद्यानुवाद भी उपलब्ध है। जो अत्यन्त सरल, व लोक प्रिय है । इन सब मुल्यवान कोति कृतियों के रहने हुए मी अब से करीब ७-८ वर्ष पूर्व वर्णी ग्रंथमाला वाराणती के ' तत्कालीन सुयोग्य मंत्री एवं जैन विद्वस्रिषद्‌ के मू. पू. अध्यक्ष न्यायाचाें डॉ. दरबारीला उजो कोठिया ने मेरे द्वारा अनुवादित 'समयसार वैभव ग्र्थ का अवलोकन, कर : मुझ से अनुरोध कर प्रेरणा की कि मैं कुदकुदस्वामी के प्रद्चनुसार' :मादि सन्यों तथा स्वामी. समस्तमद्र के इस रत्नकरण्ड (श्रावकाचार) ग्रंथ का भी राष्ट्र मापा में प्यानुवाद एवं संक्षिप्त भावायं लिखने का प्रयास करू । « उनकी प्रेरणानुसार स्व पर हित में यह कार्य संपादन करने में मुझे प्रसन्नता हुई 1 'र्चनाओों के सम्पन्न हो जाने पर यह उचित गौर आवश्यक प्रतीत हुमा कि इन्हें समाज के लामार्थ प्रकाबित मी अवश्य किया जाये 1




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