नागरीप्रचारिणी पत्रिका छठा भाग | Nagripracharni Patrika Chhatha Bhag

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Nagripracharni Patrika Chhatha Bhag by राय बहादुर - Rai Bahadur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्४ नागरोप्रचारिणी पात्रका के निमोण में सहायक होकर इससे अलग रही श्रौर' अपना विकास अपने ढंग पर करती रद्दी । यद्यपि श्ारंभ में दोनों में विभेद बदहुत कम था, पर “ब्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों व्यों दोनों में 'अंतर पर विभेद की मात्रा बढ़ती गई । * पढ़े लिखे या साहित्य-संवी लोग अपना एक अलग समुदाय सा बना लेते हैं '्ौर अपनी भाषा को झुद्ध तथा पवित्र रखने का उद्योग करते रददते हैं । जन-सम्ुदाय को ऐसी कोई चिंता नहीं ोठी । वे भाव- प्रदर्शन को ही अपना मुख्य ददेशय मानकर अपना काम करते हैं और भाषा प्राकृतिक नियमों के 'अजु्ार परवत्तित या विकसित दोती रददती है । जब 'शिष्द' लोगों को जन-समुदाय को अपने साथ लेकर चलने की 'मावश्यकता पढ़ती है झथवा जब वे उसकी सददायता या सद्दयोमिना के लिये उसके मुखापे त्ती दोते हैं, तत्र चन्हें दारकर सममाने बुमाने और अपने पत्त में करने के लिये दनकी “अशिष्ट* झपरिमाजित “श्संख्क तर पॉवारू' मापा का प्रयोग करना पड़ता दै । उनके द्यार्थो में पड़कर यदद बोलचाल को मापा क्रमश: सादित्यिक भाषा का रूप धारण करने लगती दै 'अयौत्‌ उसमें सादित्य की रचना द्ोन लगदी है । इस प्रकार यदद नवोन भाषा पुसनी माप। का स्थान म्रदण करती जाती है, पर बोल चाल की मापा अपने ढंग पर चली चलती दै। इस क्रम से एक शोर वैदिक वोलचाल को भीपा से पाली, पाज्नी से प्राकुत, प्राकृत से अपचंश और अपचेश से झाघुनिक सपाओं का झविमोव हुआ; दूसरी 'झोर बैदिक भापा के अनंतर संस्त, सस्कन के अर्नतर पाली, पाली के श्रनंत्र प्राऊत, प्राकृत के श्रनतर श्रपघंश झोर तब थाघुमिक मापाएँ भारतीय सादिस्य के राजसिंडसन पर विराजते की श्धिकारिणी हुईं । यद कम सइस्रों व से चज्ञा 'झा रदा दै और न जनि कब तक इसकी चद्धरणी होती रदेगी हमारे प्रदेश में श्राघुनिक मापाधो में पूर्व में अववधो, मध्य देश में




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